मां गंगा के यशस्वी साधक

स्मरण 

गिरिराज गुप्ता एडवोकेट  


अविरल गंगा, निर्मल गंगा अनादि काल से भारत भूमि की पहचान रही है। इस पहचान पर किसी भी प्रकार के संकट को हमें सीधे अपने ऊपर संकट मानना चाहिए। स्वर्गीय महामना मदन मोहन मालवीय जी ने 1905 में हमें जो रास्ता दिखाया था, उस पर आज भी अमल करने की जरूरत है।

महामना मदन मोहन मालवीय
गंगा के अविरल प्रवाह पर पहला संकट अंग्रेजों के समय आया। अंग्रेजों ने बांध बनाकर जब गंगा जी के प्रवाह को रोकना चाहा तब तत्कालीन समाज ने इसका भारी विरोध किया। इस विरोध की अगुआई की महामना मदन मोहन मालवीय जी ने। 1905 में उन्होंने गंगा महासभा की स्थापना की और इस मंच से आंदोलन को धार दी। उनके साथ तत्कालीन राजा, महाराजा और संत समाज ही नहीं बल्कि आम जनता भी थी।

मालवीय जी के अथक प्रयासों से 1916 में एक समझौता हुआ जिसे 26 सितंबर, 1917 से लागू किया गया। इस समझौते में अंग्रेजों ने वादा किया कि वह गंगा की अविरल धारा का सम्मान करते हुए उसे खंडित करने का प्रयास नहीं करेंगे। गौरतलब है कि हर की पेडी इसी समझौते की देन है। ब्रिटिश सरकार ने अपने वादे पर अमल किया लेकिन गंगा पर बांध बनाने का काम स्वतंत्र भारत में बड़े पैमाने पर हुआ। आजादी के बाद भारत में कई ऐसे बांध बने जिससे गंगा के अस्तित्व पर ही खतरा  मंडराने लगा है।

संत स्वामी निगमानंद सरस्वती जी
गंगा जी पर जब खनन माफिया की नजर पड़ी तो उसके खिलाफ संत स्वामी निगमानंद सरस्वती जी ने आवाज उठाई और सभी प्रकार के माध्यमों से सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने का प्रयास किया, परंतु उसका परिणाम कुछ भी नहीं हुआ। अंततः 115 दिन लंबे अनशन के बाद उन्होंने 13 जून 2011 को मातृ सदन में अपने प्राणों की आहुति दे दी।

मालवीय जी, निगमानंद जी और स्वामी सानंद जी के समय गंगा जी के सामने जो खतरा था उसमें अभी भी कोई कमी नहीं आई है। अविरल गंगा, निर्मल गंगा का लक्ष्य अब और दूर हो गया है। ऐसे में आगे क्या करें  इसी को लेकर के राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के संस्थापक देश के महान चिंतक, विचारक गोविंदाचार्य जी ने 11 अक्टूबर नरोरा से लेकर के 30 नवंबर, कानपुर तक 50 दिवसीय पैदल गंगा संवाद यात्रा का आयोजन किया है।

(लेखक राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के  राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री हैं )

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