पर्यावरण
विश्वानि देव अग्रवाल, बरेली
कटे वृक्ष सिमटते पर्वत, पीड़ा देने वाले हैं
एक दिन जब सब मिट जांयेंगे, पड़ें जान के लाले है।
एक समय आयेगा,अश्रु सूख जाएंगे प्रकृति के
फिर अपनी आँखों ने अश्रु, अविरल रोज निकाले हैं।
सूखा बाढ़ अकाल सभी कुछ, प्रदूषण के जाले हैं,
बिगड़ा है पर्यावरण इतना, दिखते नहीं उजाले हैं।
आज सूर्य का क्रोध देखकर, रंग सभी के काले हैं,
कोई भी हो किसी उम्र का, सब ही ढीले ढाले हैं।
आओ जाग उपकार करें हम,
खोल अक्ल के ताले हैं,
अपनी प्रवृत्ति प्रकृति संग जोड़ें, छोड़े जो गलती पाले हैं।
वृक्ष उगाएं नदी बचाएं, प्लास्टिक का त्याग करें,
कूड़ा – करकट न फैलाएं जो सड़कों पर डाले हैं।
(लेखक स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया के सेवानिवृत वरिष्ठ अधिकारी हैं)
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