अप्रतिम प्रेमी, अजेय योद्धा, परमयोगी श्रीकृष्ण

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 

 डॉ. सत्यदेव आज़ाद, मथुरा  


युगों से अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण श्रीकृष्ण लोकमानस को जितना प्रभावित करते रहे हैं, उतना किसी अन्य ने नहीं, यहां तक कि श्रीराम ने भी नहीं। सम्भवतः इसीलिए पौराणिक परम्परा में कृष्ण को सोलह कलाओं से युक्त पूर्ण ब्रह्म कहा गया है जबकि राम को बारह कलाओं से युक्त ही माना जाता है। सही भी है, मर्यादा एक सीमा बांध देती है। मर्यादा की रज्जु में बंधा व्यक्ति न तो कृष्ण की तरह उन्मुक्त प्रेमी हो सकता था, न उन जैसा युद्ध संचालक जिसने किसी मर्यादा के बंधन को स्वीकार नहीं किया।

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श्री कृष्ण जहां भी हैं सर्वश्रेष्ठ हैं। वह सर्वगुण सम्पन्न हैं। रूपवान ऐसे कि जड़ जगत भी उन पर मोहित, वीर्यवान ऐसे कि त्रयलोक्य का कोई वीर उन्हें चुनौती देने का साहस नहीं कर सकता, प्रेमी ऐसे कि पृथ्वी की समस्त रमणियां उन पर न्योछावर। इन सब के बावजूद त्यागी और निर्लिप्त ऐसे कि वर्षों तक कुंज कछारों में जिनके साथ केलि की, उन गोप बालाओं के अनवरत अश्रुपात से भी कभी गीले नहीं हुए, गोकुल से मथुरा गए तो फिर एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अपने बाहुबल से मथुरा का राज्य अर्जित किया, अपने कौशल से द्वारिका की स्थापना की, किन्तु किसी का राजपद स्वयं नहीं लिया, अहंकार शून्य ऐसे कि महाभारत युद्ध संचालक होने के बावजूद स्वेच्छा से अर्जुन के रथ हांकने का छोटा सा काम अपने हाथ में लिया।

युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में अग्रज पूजा प्राप्त करने के उपरान्त भी अतिथियों के पांच प्रक्षालन और ऋषियों की जूठी पत्तलें  उठाने में गौरव समझा और सर्वोपरि दिखाई दिए। योगेश्वर कृष्ण जिन के लिए संसार के घत-प्रतिघात, सुख-दुख, जय-पराजय, हानि-लाभ, जीवन-मृत्यु, लोक-परलोक, स्व पर सब समान प्रतीत होते हैं, जिन के लिए न कोई शत्रु है न मित्र। जिन्होंने अन्ततः न केवल समस्त उद्धत क्षत्रियों का नाश कर डाला, बल्कि ऐसी स्थिति उत्पन्न की जिसमें स्वयं उनका युदुकुल भी नष्ट हो गया और फिर एकान्त वन में विश्राम करते हुए जिसने एक बहेलिये के बाण के निमित्त अपना शरीर त्याग कर दिया। उनके लिए युद्ध और कंदुक क्रीड़ा समान थी। तभी तो भारतीय वैदिक परम्परा ने उन्हें वीर पुरुषोत्तम की संज्ञा दी है।

व्यक्तित्व असाधारण, लोकरंजक व क्रांतिकारी
लोक आस्था के परम ब्रह्म अथवा विष्णु के अवतार कृष्ण का प्रसंग अलग छोड़ दें तो भी महामानव श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व असाधारण, लोकरंजक व क्रांतिकारी है। जन्म से ही नहीं अपितु जन्म से पूर्व से ही जिसके वध की योजनाएं बन रही थी, षड़यंत्र रचे जा रहे थे, देश के सर्वाधिक शक्तिशाली नरेश ही नहीं, देवराज इन्द्र तक शत्रु थे। उसका जीवन साधारण हो भी कैसे सकता था, जिसका जन्म कारागार में हुआ और वह भी भाद्रपद मास की घोर अंधेरी रात में, जब मेघ गरज रहे हों, बिजलियां कड़क रही हो, वह निश्चय ही बन्धनों को तोड़ने तथा अंधकार को ललकारने के लिए ही इस धरती पर आया था।

श्रीकृष्ण की बाल कथा की सुधारस से तो इस धरती का कण-कण रसमय है और ‘रसो वेस:’ के बोध से विज्ञ जन उसमें अलौकिक आनन्द की प्राप्ति करते हैं।

गोकुल में मक्खन चुराता, रास रचाता तथा गोपियों से छेड़खानी करता नटखट कृष्ण किशोर जब अकस्मात् देवराज इन्द्र की पूजा का विरोध कर बैठता है तो सम्पूर्ण गोकुल वासी स्तब्ध रह जाते हैं। इस विरोध के साथ प्रथम बार कृष्ण के क्रान्तिकारी स्वरूप का उन्मेष होता है। यद्यपि इससे पूर्व भी वह पूतना, बकासुर, शकटासुर, तृणावर्त्त आदि का वध जैसे अनेक अलौकिक से लगने वाले कार्य कर चुके थे और कालिय जैसे नागराज का मान मर्दन कर चुके थे। किंतु यह खेल-खेल में किया गया व्यक्तिगत कार्य था। जिसमें गोकुल के ग्वालों की भूमिका न थी। इसके लिए किसी सामाजिक संगठन अथवा सामूहिक चेतना की जरूरत न थी। किन्तु इन्द्रपूजा का विरोध श्रीकृष्ण का एक अत्यन्त सुविचारित कदम था जिसका प्राथमिक उद्देश्य देवराज के विरुद्ध सामान्य जनों को संगठित करना था। दरअसल यह मथुरा के विरुद्ध विद्रोह का पूर्वभ्यास था।

इन्द्र वैदिक काल के सर्वश्रेष्ठ देवता रहे हैं जिन्हें मेघों का स्वामी माना जाता है जिस कारण धरती पर वर्षा होती है और पृथ्वी सभी को धनधान्य से सम्पन्न करती है। लोग इन्द्र की प्रसन्नता के लिए प्रतिवर्ष उसकी श्रद्धा से पूजा किया करते थे और पशुबलि आदि से भी संतुष्ट करते थे। श्रीकृष्ण इसे बचपन से ही देखते आए थे, गाय बैलों के अकारण वध से उन्हें कष्ट होता था। आयु और बुद्धि की परिपक्वता के साथ ही उन्होंने गोकुल वासियों को इन्द्र पूजा के विरुद्ध तैयार करना आरम्भ कर दिया। लोग इन्द्र के प्रकोप से डरते थे, किन्तु कृष्ण ने जिस तरह से खेल-खेल में अनेक राक्षसों को मारकर गोकुल की रक्षा की थी, इससे उन्हें कृष्ण पर पूरा भरोसा था, अतः सभी ने मान लिया। किन्तु गोप ग्वालों के सीधे सरल मन को इन्द्र का कोई विकल्प भी चाहिए था (क्योंकि कृष्ण तो उनका लाड़ला, प्रेमी, सहचर और आदर का पात्र था, उसकी पूजा का तो सवाल ही नहीं) अतः कृष्ण ने प्रकृति के सुरम्य रूपों में से गोवर्धन को चुना और गोपियों से कहा कि वे गोवर्धन पर्वत की पूजा करें। इस घटना की एतिहासिकता में प्रायः विद्वजन सन्देह व्यक्त करते हैं किंतु श्रीकृष्ण के जीवन की यह एक मात्र घटना, जिसकी पुष्टि ऋगवेद से भी होती है। ऋगवेद में कृष्ण असुर तथा इन्द्र का शत्रु कहा गया है। यदु ऋगवेद के पंचजनों (पंचजनाः) में से एक हैं। यदुवंश के इस वीर को इन्द्र समर्थकों ने असुर की संज्ञा दी।

गोपों ने कृष्ण की इच्छा का आदर किया और उन्होंने गोवर्धन पर्वत एव गायों की पूजा शुरू कर दी। (इसीलिए श्रीकृष्ण को गोरक्षक और गोपाल की उपाधि मिली )। इस नवीन परम्परा के कारण इन्द्र का रुष्ट होना स्वभाविक ही था। इसके बाद किस तरह इन्द्र ने गोकुल पर प्रलयंकारी वर्षा की तथा किस तरह कृष्ण ने गोवर्धन को ऊपर उठाकर सम्पूर्ण गोकुल वासियों की रक्षा की, यह पुरातन कथा अत्यन्त प्रसिद्ध है। अन्ततः इन्द्र का अहंकार नष्ट हो गया और पौराणिक कथाओं के अनुसार वह कृष्ण का भक्त हो गया।

श्रीकृष्ण का दूसरा संगठित क्रांतिकारी कदम मथुरा नरेश कंस को भेजे जाने वाले कर का रोकना था। राजा को कर देना प्रजा का स्वाभाविक कर्त्तव्य माना जाता है। किंतु राजा को यह कर उसकी सुख सुविधाओं के लिए दिया जाता है। राजा का कर्त्तव्य प्रजा की जान-माल की रक्षा करना, प्राकृतिक आपदाओं में उसकी सहायता करना तथा शत्रुभय से मुक्त रखना है। मथुरा नरेश कंस इनमें राजोचित से किसी भी कर्तव्य का पालन नहीं करता था, बल्कि उसने गोकुल में अनेक उपद्रव कराए तथा कृष्ण समेत सभी गोपों के वध का उपाय किया। यही नहीं इन्द्र कोप के कारण भारी वर्षा से जो आपदा आई उसकी रक्षा हेतु भी कंस ने कुछ नहीं किया। इसीलिए जब कृष्ण ने लोगों को समझाया कि वे कंस को घी-दूध तथा अनाज आदि का कर देना बन्द कर दें तब राजकोप के भय के बावजूद भी लोगों ने कृष्ण की राय मानी। अन्ततः कंस को अपनी नीति बदलनी पड़ी। उसके कूटनीतिक छद्म का आश्रय लिया और गोकुल के नन्दराय की ओर मैत्री का हाथ बढ़ाते हुए अपनी यज्ञशाला में आमन्त्रित किया। कंस की योजना थी कि खेल तमाशों के बीच किसी दुर्घटना या किसी प्रतियोगिता के बहाने कृष्ण की हत्या कर दी जाए। किन्तु कृष्ण को इस का सहज बोध था। उन्होंने कंस की सारी कुचाल नाकाम कर दी।

कर्त्तव्य पथ
यहां से श्रीकृष्ण के जीवन का नवीन अध्याय शुरू होता है। अब मुरलीधर की मुरली का युग समाप्त हो गया था। अब आवश्यकता थी शंखघोष और सुदर्शन चक्र की जो आतताइयों का सिर धड़ से अलग कर सके। कृष्ण का कोमल मन यद्यपि अभी गोकुल से ही बंधा था, वह राधा के प्रेम से व्यग्र भी हो उठते थे किन्तु उन्होंने पुनः राधा से मिलने की कोई चेष्टा नहीं की। युगधर्म जिस कर्त्तव्य वेदी की ओर कृष्ण को पुकार रहा था, वहां से राधा की ओर लौटने की कोई गुंजायश नहीं थी। श्रीकृष्ण निस्पृह भाव से कर्त्तव्य पथ की ओर चल पड़े। उन्हें पता था कि कंस का वध करके उन्होंने देश के अत्यन्त शक्तिशाली राजाओं को भड़का दिया है। उनके क्रोध से मथुरा की रक्षा करनी है तो कृष्ण को वहां रहना ही पड़ेगा।

कंस के मरने पर उसके अपने मित्रों व सम्बन्धियों का क्रोधित  होना स्वाभाविक था। मगध नरेश जरासंध की पुत्री तो उसकी पत्नी ही थी। रिश्ते में वह कंस के श्वसुर हुए। शाल्व भी उनका मित्र व संबंधी थी। जरासंध और शाल्द दोनों अपने समय के महाबली और अत्यंत शक्तिशाली राजा थे। कंस की मृत्यु का बदला लेने के लिए उन्होंने मथुरा पर आक्रमण करने शुरू कर दिए। कृष्ण जानते थे कि अधिक दिनों तक इनके आक्रमण झेलना संभव नहीं है। अतः वह निःसंकोच पलायन कर गए, सुदूर द्वारिका की ओर।  यहां भी उन्होंने समुद्र में घिरे एक द्वीप में अपनी राजधानी स्थापित की। उनकी राजनीति ‘एक कदम आगे और आश्यकता पड़ने पर दो कदम पीछे’ वाली थी। आधुनिक युग के क्रांतिकारियों ने भी इसी रणनीति का इस्तेमाल किया था।

व्यावहारिक व्यक्ति
श्रीकृष्ण सर्वथा व्यावहारिक व्यक्ति थे। उन्होंने स्थापित परम्पराओं तथा दकियानूसी नियमों की कमी की कोई परवाह नहीं की। केवल युद्ध में ही नहीं, सामाजिक जीवन में भी वह व्यावहारिक औचित्य को परखते थे। श्रीकृष्ण के अग्रज बलराम अपनी बहिन सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करना चाहते थे। यह जानते थे कि सुभद्रा अर्जुन से प्रेम करती है। अत: उन्होंने बहिन को निःसकोच अर्जुन के साथ गोपनीय ढंग से भगा दिया। यद्यपि बलराम सहित पूरा यदुवंश इस घटना से बेहद क्षुब्ध हुआ। तदपि कृष्ण ने बाद में सबको समझा-बुझा कर शांत कर दिया। यदि यह मर्यादा का दामन थामे रहते तो सुभद्रा का जीवन नरक मय हो जाता। विदर्भ नरेश भीम की पुत्री रुक्मिणी कृष्ण के साथ विवाह करना चाहती थी, किन्तु उसके पिता उसे चेदि नरेश शिशुपाल के हाथों सौंपना चाहते थे। वस्तुस्थिति को समझते हुए श्रीकृष्ण बिना किसी उहापोह के रुक्मिणी का अपहरण कर लाए।

अपने साध्य को प्राप्त करने हेतु वह साधनों की पवित्रता या अपवित्रता पर विचार नहीं करते थे। बस लक्ष्य पवित्र होना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर युद्ध छोड़ कर भाग जाने को न तो वह कायरता समझते थे और न छद्म प्रहार को अनैतिक। युगधर्म को पहचानने में वह सिद्धहस्त थे। यदि युधिष्ठिर की भाँति वह भी पुस्तकीय धर्म के बंधन में बंधे रहते तो महाभारत युद्ध का परिणाम भी उल्टा होता।

क्या शस्त्र हाथ में रहते भीष्म, द्रोण तथा कर्ण जैसे महारथी मारे जा सकते थे। भीष्म जिनकी छाती से लगकर अर्जुन पिता का स्नेह प्राप्त करते थे। द्रोण, जिन्होंने अर्जुन को श्रेष्ठतम धनुर्धर बनाने के लिए अपने पुत्र अश्वत्थामा से भी बढ़कर माना और एकलव्य जैसे निर्दोष का अंगूठा कटवा दिया। क्या ऐसे गुरुजनों पर अर्जुन तीर चला सकते थे? मगर यह कृष्ण ही थे जिन्होंने अर्जुन से भीष्म और द्रोण का वध कराया क्योंकि वह जानते थे कि इनके जीवित रहते पाण्डवों की विजय असंभव है। यद्यपि इन दोनों की आत्माएं पाण्डयों के साथ किन्तु पारम्परिक धर्म में बंधे रहने के कारण वे दुर्योधन को धोखा नहीं दे सकते थे। इधर श्रीकृष्ण ने उनकी मृत्यु के लिए अवसर जुटा लिए। द्रोण को अश्वत्थामा की मृत्यु की मिथ्या सूचना फैलाकर तथा भीष्म के सम्मुख नारी वेश धारी रथी को खड़ा कर उनके दोनों को शस्त्र त्याग के लिए बाध्य कर दिया और इन निहत्थे महारथियों पर अर्जुन से तीन चलवाया।

कर्ण भी जब धनुष रखकर दलदल में फंसे अपने रथ का पहिया निकाल रहा था तो तभी उसका वध कराया। निश्चय ही श्रीकृष्ण के ये समस्त कार्य शास्त्र सम्मत न थे, अधार्मिक थे। कैसी बिडम्बना है कि जिसे सारे धर्मों का मूल स्त्रोत कहा जाता है, सभी धर्मों व सम्प्रदायों में मान्य श्रीमद् भगवत गीता के उद्घोषक श्रीकृष्ण द्वारा ऐसे अधार्मिक कार्य! परन्तु कृष्ण का धर्म उच्चतम लक्ष्य प्राप्ति में निहित था। अत्याचारी दुर्योधन के अहंकारी राज्य के अंत हेतु ये कृत्य भी धर्मसम्मत थे।

अत्यंत विनम्र व दयालु
श्रीकृष्ण अत्यंत विनम्र व दयालु थे। किंतु वह दया उस पर करते थे जो दया का पात्र हो। युद्ध के अंतिम चरण में जब अश्वत्थामा, कृपाचार्य आदि जैसे मात्र दो-तीन महारथी जीवित बचे थे। घायल व चकित दुर्योधन अपने प्राण बचाने हेतु एक घनी झाड़ियों वाले सरोवर में जा छिपा था, किन्तु कृष्ण ने वहां भी उसका पीछा नहीं छोड़ा। उसे ललकार कर बाहर निकलवाया और भीम के साथ ऐसा भिड़ाया, जो अंतिम गदा युद्ध रहा। अपनी सारी महत्वाकांक्षाओं के चूर्ण हो जाने पर क्रोधित  दुर्योधन चुटैल हो जाने पर भी जब भीम पर भारी पड़ता जा रहा था, तभी कृष्ण ने जांघ पर प्रहार करने हेतु भीम को संकेत दिया ( गदा युद्ध में कमर से नीचे प्रहार करना धर्म विरुद्ध है)। भीम ने वही किया। इस अन्याय से क्षुब्ध बलराम आनन-फानन में भीम को मारने दौड़े किन्तु कृष्ण में उनके पैर पकड़ कर किसी तरह शांत किया। इसे कृष्ण का धर्म विरुद्ध आचरण कहा जा सकता है किन्तु यह वही जानते थे कि जब तक दुर्योधन जीवित है महाभारत समाप्त हो ही नहीं सकता।

श्रीकृष्ण का सबसे असाधारण स्वरूप उनके योगेश्वर रूप का है। योग एक अत्यन्त जटिल दार्शनिक प्रश्न है जिसके विस्तार में जाना यहां संभव नहीं। किंतु कृष्ण के अनुसार क्षोभ रहित चित्त वाला व्यक्ति ही योगी है। जो राग विराग से परे सुख-दुख में समान और जय पराजय से अप्रभावित रहने वाला केवल कर्तव्य में निष्ठा रखने वाला व्यक्ति ही योगी है। जिसे जन्म मृत्यु का भय नहीं सताता तो सदा एक सा रहता है, वह योगी है। जिसका हृदय प्रशांत सागर के समान है जिसमें निजी लाभ-हानि की उर्मियां उत्पन्न नहीं होती, वही योगी है।

कर्तव्य निष्ठा का उपदेश
युद्ध भूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया, वह कर्तव्य निष्ठा का उपदेश था। कृष्णः वहां आत्मा के स्वरूप का विवेचन नहीं करते, वे लोकधर्म ही सिखाते हैं। उन्होंने अर्जुन को पहले यह बताया कि न कोई मरता है, न मारता है। ये जीवात्मा शाश्वत है। मात्र शरीर जन्मता है और मरता है। यह जीवन मरण भी वैसा ही है जैसे पुराने वस्त्रों को उतार कर नए वस्त्र धारण करना। आगे वह यह भी कहते हैं कि इस युद्ध में जो लोग तुम्हारे सामने खड़े हैं, वे सब तो पहले मरे हुए हैं, तुम तो इनकी मृत्यु के निमित्त मात्र हो। इनका वास्तविक संहारक तो काल है। जब अर्जुन इस बात से संतुष्ट नहीं हुए तो कृष्ण ने कहा- मान लिया जाए कि आदमी एक ही बार पैदा होता है, एक ही बार मरता है तो भी तुम्हें युद्ध करना चाहिए क्योंकि युद्ध न करने से तुम संसार में उपहास के पात्र बनोगे, लोग तुम्हें कायर समझेंगे और दुष्ट रंगरेलियां मनाएंगे। देखो- जीवित रहे तो राज करोगे अन्यथा स्वर्ग जाओगे। लोक निंदा के पात्र तो नहीं बनोगे। जबकि अर्जुन युद्ध की विभीषिका से चिंतित थे।

कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि भविष्य की चिंता छोड़कर वर्तमान के कर्तव्य से मुंह न मोड़ो। मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने तक ही सीमित है, उसके फल के प्रति आसक्ति रखना दुःख को निमंत्रित करना है। इसलिए कृष्ण ने निष्काम कर्म योग का प्रतिपादन किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि फल की कामना तो होगी ही किंतु आसक्ति नहीं होनी चाहिए। श्रीकृष्ण ने जो कुछ किया उसका लक्ष्य पूर्व निर्धारित था। अपने स्वार्थ या लाभ के लिए कुछ न था। राधा का प्रेम भी उन्हें कर्तव्य पथ से विचलित न कर सका। कृष्ण का स्वयं का जीवन कर्मयोग का मूर्तमान उदाहरण है। उन्होंने अपने युग को एक नवीन धर्म और नवीन जीवन मूल्य दिया।

श्रीकृष्ण के इस असाधारण व्यक्तित्व ने जनमानस को कहां तक प्रभावित किया, इसका प्रमाण भारत में तो खोजने की जरूरत ही नहीं क्योंकि यहां जीवन का कोई भी अंग ऐसा नहीं जहां कृष्ण की व्याप्ति न हो। दर्शन हो या नीति, कला हो या संस्कृति, स्थापत्य हो या कूटनीतिक, सर्वत्र कृष्ण ही कृष्ण हैं।

भारतीय सीमाओं के बाहर भी श्रीकृष्ण
भारतीय सीमाओं के बाहर भी श्रीकृष्ण किसी न किसी रूप में परिरक्षित हो ही जाएंगे। उदाहरणतया यूनान में चौथी शताब्दी ईस्वी से भी पहले वहां के लोग हेराक्लिस की पूजा करते आ रहे हैं। यह यदुवंशी कृष्ण ही हैं। यूनानी कथनकों के अनुसार उसने भी हाइड्रा (कालिय) सर्प का वध किया और बहुत सी कुमारियों के साथ विवाह किया। हेराक्लिस की मृत्युकथा भी कृष्ण कथा से मिलती-जुलती है। कृष्ण को तीर मारने वाला बहेलिया (जरस) उनका अर्थबंधु ही था। इसी तरह हेरक्लिास की हत्या भी उसके भाई ने की। उन्हें यूनान में उन्हें बल का प्रतिमान और सौन्दर्य व सुन्दिरियों के अनन्य प्रेमी के रूप में जाना जाता है।

 (लेखक आकाशवाणी के सेवानिवृत्त वरिष्ठ उद्घोषक और नारी चेतना और बालबोध मासिक पत्रिका ‘वामांगी’ के प्रधान संपादक हैं)
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