धीर गंभीर समंदर
डॉ. विनीता राठौड़
पर्वतों का सीना चीर
घने वनों को कर के पार
इठलाती बलखाती नदिया
मैदानों तक आती है
गाँव-शहर की सर्पिल राहों से
चंचल चपल कल-कल बहती है
बहते-बहते न थमने का
करने लगती है अभिमान
पर देख सामने विशाल समंदर
डर से थर्रा जाती है
पीछे लौटना है असंभव
शीघ्र समझ वो जाती है
त्याग कर अपना दंभी अस्तित्व
सागर में जब समाती है
चुपचाप बहना
मौज में रहना सीख
स्वयं धीर गंभीर समंदर हो जाती है।
(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, नाथद्वारा, राजसमन्द की प्राणीशास्त्र की सेवानिवृत्त सह आचार्य हैं)
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