सावन लागौ चले पुरवैया उड़जा काग लिवा ला भईया. . .

श्रावण 

मुरारी शर्मा एडवोकेट, वैर  


श्रावण मास में युवतियों का सबसे प्यारा त्यौहार तीज है। वर्षा ऋतु में चारों तरफ की धरा भी सघन हरितिमा से मुस्कराने लगती है। चारों ओर उमंग और उल्लास का वातावरण छा जाता है। ग्रीष्म-ताप से संतृप्त इस धरा के प्राणियों में वर्षा ऋतु के आगमन के साथ ही एक नवीन जीवन का संचरण होता है।

श्रावण मास में जब वर्षा की झड़ी लगने लगती है तथा रिमझिम-रिमझिम बूंदें जब  गीत गाने लगती हैं, तब नीम, पीपल तथा आम्रवृक्षों की मोटी-मोटी डालों पर झूले डाल दिए जाते हैं और जब उन पर किशोरियों तथा तरुणियों की चोटियां नागिन सी लहराने लगती हैं तभी नई उमंगें नई स्फूर्ति लिए तीज का प्यारा त्यौहार आता है। प्रवासी प्रियजन भी तीज के त्यौहार पर अपने-अपने घरों को लौट आते हैं।

श्रावण मास में इस तीज के त्यौहार पर सभी युवतियां अपने पीहर आ जाती हैं। नव विवाहिताओं को ससुराल से बुलाने के लिए उनके भाई जाते हैं। इस अवसर पर भाई की प्रतीक्षा बहिन द्वारा बड़ी उत्सुकता से की जाती है। वह भाई की प्रतीक्षा में सावन के गीत कुछ इस तरह गुनगुनाने लगती है:
बोले मुडेली पै कऊआ,
आज मेरों आवे लिवाऊआ रे।
सावन लोगों चले पुरवैया,
उड़जा काग लिवाला भैया।
भईया मेरो है आवऊआ,
आज मेरो आवे लिवऊआ रे।

यूं तो वर्षा ऋतु में तीज के अवसर पर कोई भी युवती अपने ससुराल नहीं रहती, लेकिन विशेषतः शादी के बाद की प्रथम तीज पर तो लड़की को ससुराल में रखना किसी भी तरह अच्छा नहीं माना जाता। सास और बहू का शादी की प्रथम तीज पर साथ रहना बृजआंचल की सामाजिक परम्परा के बिलकुल प्रतिकूल माना जाता है। एक नवविवाहिता युवती को उसका भाई लेने नहीं आया। उसके मन में बड़ी आकुलता है। उसे अपने पीहर जाने की बड़ी अभिलाषा है। वह अपने साजन से कुछ यूं कहती है:
अरे सजना सावन को आयौ है त्यौहार,
मैं अपने पीहर जाऊंगी,
मेला लगौ हरियाली तीज कौ,
घर-घर पीहर जाऊंगी
बहुत दिना से पीहर नाय गई।
अरे सजना मोटर में दीजौ  बैठार,
मैं अपने पीहर जाऊंगी।

इन बृजांचल के सावन के गीतों  में हमें नारी जीवन की एक स्पष्ट झलक मिलती है। उनके सुख, दुःख तथा हृदय में चलने वाला अन्तर्द्वन्द सभी कुछ इन बृज गीतों में प्रतिबिम्बित होता है। एक युवती को उसका भाई लेने आता है और युवती काग को इंगित करती हुई कुछ इस तरह से गाती है:
“उड़-उड़ रे कागा मोरे,
पीहर जाइयो, खबर तो लईयो मईया बाप की।
इतने में काग उड़न ना पायौ,
भईया खड़े है, द्वार पै जी

तीज के इस मधुर त्यौहार पर प्रायः प्रत्येक घर में झूला डल जाते हैं। एक युवती के घर में अभी झूला नहीं डाला गया। वह अपनी माता से झूला डालने का आग्रह करती हुई कहती है-  ओ मां मेरे लिए झूला डाल दो, नवेली तीज आ गई है, मेरी सहेलियों ने अपने घर झूला डाल दिए हैं। मेरे घर झूला नहीं डला है।

वर्षा के आगमन के पूर्व ही युवतियों को अपने पिता के घर जाने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है, क्योंकि ससुराल में घूंघट की ओट में वर्षा का व्ह आनन्द कहाँ, जो पिता के घर स्वच्छन्दतापूर्वक संग की सहेलियों के साथ झूला झूलने और पानी में कुलांचें भरने में है। चार महीने पहिले से ही वह अपने पति से कहना शुरू कर देती है। वह कहती है जेठ-आषाढ़ का महीना आ गया है। इसके साथ ही सावन-भादों के महीने भी आ रहे हैं। मुझे मेरे पिता के घर पहुंचा दो, क्योंकि मुझे अपने पिता की याद बहुत सता रही है।

अब परम्परा समयानुसार बदल सी गई है। अब लड़कियां अपना विवाह होने के बाद पहले की तरह अपने पीहरों में अधिक समय नहीं रहतीं। समय की व्यस्तता के कारण अब वह सावन महीने के स्थान पर गर्मियों के दिनों में जब विद्यालयों की  छुट्टियां होती हैं, तब अपने माता-पिता के घर आकर उनके साथ एक-डेढ़ माह की छुट्टियां बिता जाती हैं।

सावन का महीना इस बृजांचल में पहले जैसा दिखाई नहीं देता। वैसे तीज का यह सुन्दर त्यौहार उनके सौभाग्य का प्रतीक होता है,  जितनी उमंग और उत्साह युवतियों द्वारा इस त्योहार के अवसर दिखाई जाती है, गणगौर को छोड़कर किसी भी अन्य त्यौहार पर नहीं दिखाई जाती।

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