‘आशा’ के संचार से बदलाव की बयार

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष

राजेश खंडेलवाल, स्वतंत्र पत्रकार, भरतपुर  


गरीबी और अशिक्षा के भंवरजाल में स्वास्थ्य के प्रति ध्यान नहीं दे पाना उनके लिए आम है, लेकिन ‘आशा’ का  संचार ना केवल उन्हें जागरूक बनाने में मददगार बना, बल्कि उनमें सामाजिक बदलाव की बयार भी लेकर आया है। कुछ ऐसी ही कहानी है राजस्थान के आदिवासी बहुल बारां, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ और उदयपुर जिलों में रह रहे अनुसूचित जनजाति वर्ग के लोगों की।

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रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत जरूरतों के लिए जूझते इन लोगों की अपने और अपनों के स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होना तो बड़ी बात है। नतीजतन इन क्षेत्रों में कम वजन के बच्चे पैदा होना, उनका कुपोषित होना या फिर जन्म के बाद बच्चे का काल कलवित हो जाना भी उनके लिए सहज माना जाता रहा है। उनके खून में घुली-मिली रूढि़वादिता को मिटाने और उनमें स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता पैदा करने तथा उन्हें सरकारी योजनाओं से लाभान्वित कराकर आर्थिक रूप से सशक्त बनाने जैसे सपनों को संजोकर आईपीई ग्लोबल उनके लिए राजपुष्ट कार्यक्रम लेकर आया।

बीते 4 साल से राजस्थान के इन्हीं जिलों में राजपुष्ट मातृ एवं पोषण जैसे विषयों पर आदिवासी महिलाओं और उनके परिजनों को जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य व पोषण के प्रति जागरूक बनाने में जुटा है, जिसमें राजस्थान सरकार के चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग, महिला एवं बाल विकास विभाग के साथ ही क्षेत्र के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों तथा संबंधित क्षेत्रों में संचालित अलग-अलग स्वयंसेवी संस्थाओं का अपेक्षित सहयोग मिल रहा है। राजपुष्ट इन आदिवासी इलाकों में ग्राम स्वास्थ्य, स्वच्छता एवं पोषण समिति (बीएचएसएनसी) की बैठके पीएलए के जरिए कर, लोगों में स्वास्थ्य, स्वच्छता और पोषण संबंधी जन-जागृति लाने की दिशा में सतत क्रियाशील है।

मोखमपुरा, राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले का आदिवासी बहुल गांव है, जहां अलग से कच्ची बस्ती बनाकर करीब 40 परिवार रहते हैं, जो बाहर से यहां आकर रहने लगे हैं। गरीबी और अशिक्षा के कारण ये परिवार सरकारी सुविधाओं से महरूम थे। पुरुष बर्तन ठीक करने का काम करते हैं और इसके लिए उन्हें बांसवाड़ा व अन्य जिलों में आना-जाना पड़ता है। यहां महिलाएं स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में होने वाले विपरीत प्रभावों से अनजान थीं, जिससे घर पर ही प्रसव होना, समय से पहले बच्चों का जन्म, कम वजन के बच्चे पैदा होना, बच्चों का टीकाकरण नहीं करवाना, पोषाहार नहीं लेना उनके लिए खास बात नहीं थी। ऐसे ही कारणों से कई बार इनके बच्चों की मृत्यु तक हो जाती थी।

यहां के आशा सहयोगिनी केसर इंदौरा बताती हैं, इसके लिए उन्होंने हर माह कच्ची बस्ती में अलग से पीएलए बैठक की और उन्हें स्वास्थ्य व पोषण संबंधी जानकारी के अभाव में होने वाले नुकसान के बारे में समझाया गया। सतत प्रयास का नतीजा रहा कि जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य के साथ ही उनके रीति-रिवाज व व्यवहार में बदलाव नजर आने लगा। बीते साल 2023 में इस बस्ती में 12 बच्चों का जन्म हुआ, जिनमें से कोई भी ऐसा नहीं, जिसका वजन ढाई किलोग्राम से कम हो, जबकि दो साल पहले तक यहां 33 फीसदी बच्चे कम वजन के पैदा होते थे। इन सभी बच्चों का जन्म सरकारी अस्पताल में कराया गया, जबकि पहले 50 फीसदी बच्चे घर पर ही पैदा हो रहे थे। इतना ही नहीं, इन बच्चों की माताओं का टीकाकरण भी बीते साल शत-प्रतिशत रहा, जबकि 2 साल पहले यह आंकड़ा 33 फीसदी ही था।

मोखमपुरा कच्ची बस्ती की गर्भवती रुक्सार अपने दर्द को याद करते हुए बताती हैं कि उसके पहले बच्चे का वजन दो किलो से कम था, जो जन्म से ही काफी कमजोर था। प्रसव भी घर पर हुआ। कुछ समय बाद बच्चे की मृत्यु हो गई। उसका कहना है कि ‘अब मैं हर माह बैठक में शामिल होती हूं, जहां मुझे खून की कमी व खानपान की जानकारी मिल रही है। मैं और मेरा पति साबिर अब जान चुके हैं कि इस बार डिलीवरी सरकारी अस्पताल में ही करवाएंगे।’ 

इसी बस्ती की सुनीता बाई मीणा कहती हैं कि ‘ मैं अपनी बहु अनीता को हर माह होने वाली बैठक में भेजती हूं, जहां आशा मेरे एक साल के पोते और बहु के स्वास्थ्य संबंधी जानकारियां देती हैं। हमें अब सरकारी योजनाओं की भी जानकारी होने लगी है।’ वहीं एक अन्य महिला शिवानी परवेज का कहना है कि ‘अब मैं  अपने 5 माह के बच्चे को खुद का ही दूध पिलाती हूं, जो उसके लिए अच्छा और बेहतर आहार है। यह मुझे आशा सहयोगिनी की ओर से हर माह कराई जाने वाली बैठक से ही पता चला।’

बारां जिले के मांगरोल ब्लॉक के बोहत गांव की आशा हेमलता शक्यवाल बताती हैं, शुरूआती दिनों में बैठक में खेल के माध्यम से महिलाओं को प्रेरित किया जाता है तो लोग मजाक उड़ाने लगे। शुरूआत में बहुत दिक्कतें आईं, लेकिन हौंसला नहीं खोया। अब महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी बैठक में आने लगे हैं। बैठक के दौरान एक बार चर्चा में आया कि आंगनबाड़ी केन्द्र की चारदीवारी नहीं है, जिससे उन्हें खुले में बैठक करनी पड़ती है। हमारी इसी परेशानी को बैठक में मौजूद सरपंच ने समझा और कुछ दिन बाद ही पंचायत ने आंगनबाड़ी केन्द्र की चारदीवारी बनवा दी। इतना ही नहीं, ग्राम स्वास्थ्य समिति के फंड से एक टेबल-कुर्सी भी उपलब्ध करा ली गई।

डूंगरपुर जिले के चितरी गांव की आशा रेखा यादव बताती हैं कि सरपंच दुर्गा देवी डामोर भी महिला हैं, जो भी ग्रामीण महिलाओं को बैठक में शामिल होने के लिए प्रेरित करती रहती हैं। इससे महिलाएं जागरूक हो रही हैं और अब वे गर्भावस्था का पंजीकरण भी समय से कराने लगी हैं। इससे उन्हें समय पर बेहतर स्वास्थ्य की जानकारी मिल रही है और वे समाज की रुढिय़ों से छुटकारा भी पा रही हैं। सास व पति भी महिलाओं की देखभाल में मददगार बन रहे हैं। ग्रामीण महिलाएं अब बेहतर स्वास्थ्य पर आपस में चर्चाएं करने लगी हैं।

राजपुष्ट के सहभागी, सीख व क्रियान्वयन (पीएलए) से ग्राम स्वास्थ्य और पोषण समितियों की बैठकें करने से आए परिणामों को राज्य सरकार ने सार्थक मानते हुए पीएलए का दायरा 5 और जिलों तक बढ़ा दिया है। इस वित्तीय वर्ष से चित्तौडगढ़़, पाली, अजमेर, झालावाड़ और राजसमंद में भी पीएलए पद्धति से वीएचएसएनसी की बैठकें करने की योजना पर कार्य शुरू हो चुका है।

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