गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा: गुरु साक्षात परम ब्रह्मा, तस्मै श्री गुरुवे नम:

गुरु पूर्णिमा पर विशेष

  मुरारी शर्मा एडवोकेट 


समाजिक व्यवस्था की  निर्माण प्रक्रिया में गुरु एक अभिन्न अंग है। हिंदू धर्म व्यवस्था में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश का रूप माना गया है। हमारे देश में हर साल आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा मनाई जाती है।

गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा: गुरु साक्षात परम ब्रह्मा, तस्मै श्री गुरुवे नम:

     अर्थ है- हे गुरु, आप देवताओं के समान हैं। आप ही भगवान ब्रह्मा हैं, आप ही भगवान विष्णु हैं और आप ही महेश हैं। आप देवताओं के देवता हैं। हे गुरुवर! आप सर्वोच्च प्राणी हैं। मैं नतमस्तक होकर आपको नमन करता हू़ं।

पंचांग के अनुसार, हर साल आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि के दिन को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। गुरु शब्द ‘गु’ और ‘रु’ से मिलकर बना है। इसमें गु का अर्थ अंधकार, अज्ञान से है तो वहीं रु का अर्थ दूर करना या हटाना है। इस तरह से गुरु वह है जो हमारे जीवन से अज्ञानता के अंधकार को दूर करते हैं और हमें ज्ञानी बनाते हैं। गुरु से ही जीवन में ज्ञान की ज्योति से सकारात्मकता आती है।

कब और कैसी हुई गुरु पूर्णिमा की शुरुआत
कहा जाता है कि आषाढ़ पूर्णिमा के दिन को गुरु पूर्णिमा पर्व के रूप में मनाने की शुरुआत महर्षि वेद व्यास जी के 5 शिष्यों द्वारा की गई। हिंदू धर्म में महर्षि वेद व्यास को बह्मा, विष्णु और महेश का रूप माना गया है। महर्षि वेद व्यास को बाल्यकाल से ही अध्यात्म में गहरी रूचि थी। ईश्वर के ध्यान में लीन होने के लिए वो वन में जाकर तपस्या करना चाहते थे। लेकिन उनके माता-पिता ने इसके लिए उन्हें आज्ञा नहीं दी। तब वेद व्यास जी जिद्द पर अड़ गए। इसके बाद वेद व्यास जी की माता ने उन्हें वन में जाने की अनुमति दे दी। लेकिन माता ने कहा कि, वन में परिवार की याद आए तो तुरंत वापस लौट जाए। इसके बाद पिता भी राजी हो गए। इस तरह माता-पिता की अनुमति के बाद महर्षि वेद व्यास ईश्वर के ध्यान के लिए वन की ओर चले गए और तपस्या शुरू कर दी।

वेद व्यास जी ने संस्कृत भाषा में प्रवीणता हासिल की और इसके बाद उन्होंने महाभारत, 18 महापुराण, ब्रह्मसूत्र समेत कई धर्म ग्रंथों की रचना की। साथ ही वेदों का विस्तार भी किया। इसलिए महर्षि वेद व्यास जी को बादरायण के नाम से भी जाना जाता है।

कहा जाता है कि आषाढ़ माह के दिन ही महर्षि वेद व्यास जी ने अपने शिष्यों और ऋषि-मुनियों को श्री भागवत पुराण का ज्ञान दिया। तब से महर्षि वेद व्यास के 5 शिष्यों ने इस दिन को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाने और इस दिन गुरु पूजन करने की परंपरा की शुरुआत की। इसके बाद से हर साल आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन को गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा के रूप में मनाया जाने लगा।

गुरु पूर्णिमा का महत्व
शास्त्रों में भी गुरु को देवताओं से भी ऊंचा स्थान प्राप्त है। स्वयं भगवान शिव गुरु के बारे में कहते हैं, ‘गुरुर्देवो गुरुर्धर्मो, गुरौ निष्ठा परं तपः। गुरोः परतरं नास्ति, त्रिवारं कथयामि ते।।’ यानी गुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में निष्ठा ही परम धर्म है। इसका अर्थ है कि, गुरु की आवश्यकता मनुष्यों के साथ ही स्वयं देवताओं को भी होती है।

गुरु को लेकर कहा गया है कि, ‘हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर’. यानी भगवान के रूठने पर गुरु की शरण मिल जाती है, लेकिन गुरु अगर रूठ जाए तो कहीं भी शरण नहीं मिलती। इसलिए जीवन में गुरु का विशेष महत्व होतै है। मान्यता है कि आप जिसे भी अपना गुरु मानते हों, गुरु पूर्णिमा के दिन उसकी पूजा करने या आशीर्वाद लेने से जीवन की बाधाएं दूर हो जाती है।

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