भारतीयता से ही भारतीयों में स्व का बोध सम्भव: जे नन्दकुमार | जयपुर में ‘स्वबोध का राष्ट्रीय संघर्ष’ पुस्तक का विमोचन और ‘भारतीय ज्ञान परम्परा केंद्र’ का लोकार्पण

जयपुर

सार्थक संवाद, प्रज्ञा प्रवाह जयपुर प्रान्त इकाई की ओर से ‘स्वबोध का राष्ट्रीय संघर्ष’ पुस्तक विमोचन और भारतीय ज्ञान परम्परा केंद्र लोकार्पण कार्यक्रम का आयोजन  स्वास्थ्य कल्याण कॉलेज ऑफ फार्मामेडिक्ल टेक्नोलॉजी में किया गया। समारोह की अध्यक्षता विधानसभा अध्यक्ष वासुदेव देवनानी ने की।

कार्यक्रम के मुख्य वक्ता पुस्तक के लेखक जे नंदकुमार थे। उन्होंने अपनी पुस्तक के बारे में बताया और कहा कि हम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के समूचे विचार को ‘स्व’ (‘हमारा खुद का होना’) के दृष्टिकोण से देखें, जिसमें हमारे लोगों को बहुविध प्रेरित करने की सामर्थ्य है और जो संभवत: हमारे दौर के लोगों के सामने अपना सही अर्थ व्यक्त करता है।

जे नंदकुमार ने कहा कि स्वतंत्रता संग्राम के अपने खोए हुए ‘सामूहिक सत्य’ पर फिर से विचार करने, परिष्कृत करने और स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायकों का नए सिरे से पता लगाने और उन्हें स्वीकार करने के साथ-साथ अपना दृष्टिकोण बदलते हुए अपने अतीत तथा सामूहिक पहचान के बारे में सामने आने वाली सच्चाइयों का विश्लेषण करना चाहिए।अंग्रेजों ने भारत पर लगभग दो सौ वर्षों तक शासन किया। भारत को ब्रिटिश राज से 15 अगस्त, 1947 को आजादी मिली। भारतीय जनता और भारतीय अर्थव्यवस्था का शोषण ब्रिटिश राज का एक हिस्सा भर था, जबकि सांस्कृतिक और बौद्धिक उपनिवेशन इसका बड़ा संदर्भ था।

जे नंदकुमार का कहना था कि यह तथ्य है कि भारतीय जनता ने बिना प्रतिरोध के कभी भी विदेशी आधिपत्य को स्वीकार नहीं किया। 15वीं शताब्दी के बाद से ही, भारत के विभिन्न हिस्सों में समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा औपनिवेशिक शासन के विस्तार के खिलाफ कई व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए हैं। ये विरोध स्थानीय और अलग-थलग लग सकते हैं, लेकिन इनकी प्रकृति निश्चित रूप से राष्ट्रीय है।

जे नंदकुमार ने कहा  कि स्वतंत्रता के इस लंबे संघर्ष के दौरान हमारे लोगों ने स्व के विचार के लिए संघर्ष किया। उनका मानना था कि केंद्रीकृत, शोषक और हिंसक शासन प्रणाली और इसके मूल में बैठे लालच के अर्थशास्त्र से छुटकारा पाए बिना अंग्रेजों से छुटकारा पाने का कोई मतलब नहीं होगा।

जे नंदकुमार के अनुसार श्री अरबिंदो और महात्मा गांधी ने सर्वोदय, स्वराज और स्वदेशी के विचार के साथ इस सामाजिक-दार्शनिक निर्मिति का नेतृत्व किया। इस त्रयी की पहली अवधारणा थी सर्वोदय, अर्थात् सभी का उत्थान; इसमें पृथ्वी, जानवरों, जंगलों, नदियों और भूमि का ख्याल रखने का भाव समाहित है। दूसरी अवधारणा है स्वराज, यानी स्वशासन। स्वराज शासन की एक छोटे पैमाने पर, विकेंद्रीकृत, स्व-संगठित और स्व-निर्देशित भागीदारी संरचना के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन लाने का काम करता है। इसका अर्थ आत्म-परिवर्तन, आत्मानुशासन और आत्म-संयम से भी है। इस प्रकार, स्वराज एक नैतिक, नीति-विषयक, पारिस्थितिक और आध्यात्मिक अवधारणा तथा शासन की पद्धति है।

उन्होंने कहा कि इस त्रयी में तीसरी अवधारणा स्वदेशी, अर्थात् ‘स्थानीय अर्थव्यवस्था’ है, जो स्थानीय उत्पादों और उपभोक्ताओं के लिए स्थानीय मांग और आपूर्ति शृंखलाएं फिर से बनाने का प्रयास था। पहले स्वदेशी का विचार अर्थशास्त्र तक ही सीमित था, लेकिन बाद में इसका उपयोग सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं में भी किया जाने लगा।  सर्वोदय, स्वराज और स्वदेशी को बारीकी से देखें, तो इन तीनों शब्दों का सर्वनिष्ठ मूल स्व है, जिसका अभिप्राय ‘आत्म’ से है। स्व के विचार का विस्तार करें, तो पाएंगे कि औपनिवेशिक संरचना विभिन्न तरीकों और तकनीकों के माध्यम से भारतीय स्व के इस विचार को दबाने का एक उपकरण थी। राम और कृष्ण की भूमि में विदेशी शासन और विदेशी धर्म को लागू करके लोगों की भारतीय पहचान और स्वाभिमान को धूमिल करने का प्रयास किया गया था।इस उपनिवेशवाद को पश्चिम के लोगों द्वारा पूर्व के लोगों पर धार्मिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद थोपने के दृष्टिकोण से देखना महत्वपूर्ण है। नस्लीय श्रेष्ठता और श्वेत लोगों की जिम्मेदारी की धारणा विभिन्न आख्यानों के माध्यम से दिखाई देती है, जिसे इतिहास में नई खोजों के आलोक में फिर से जांचा जाना चाहिए।  बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इस्लामी-वामपंथी इतिहासकारों द्वारा हेरफेर के साथ गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया। स्वाधीनता संग्राम के वास्तविक स्वरूप का विश्लेषण करने से पहले इसके इर्द-गिर्द बनाए गए मिथकों को समझना जरूरी है।

जे नन्द कुमार ने कहा कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम संबंधी मिथकप्रचलित धारणा और प्रसार के विपरीत, उपनिवेशन प्रक्रिया केवल आर्थिक प्रक्रिया नहीं थी। वास्तव में, यदि हम स्वतंत्रता के 75 वर्षों की समीक्षा करें, तो पाएंगे कि उपनिवेशन प्रक्रिया के केंद्र में बौद्धिक और सांस्कृतिक दासता है।

उन्होंने बताया कि नाइजीरियाई उपन्यासकार बेन ओकरी ने एक जगह लिखा कि किसी राष्ट्र को जहर देना हो तो, उसकी कहानियों को जहर दे दें। एक हताश राष्ट्र अपने आप को हताश कहानियाँ सुनाता है। उन कहानीकारों से सावधान रहें जो (प्रकृति से) खुद को मिले उपहारों के महत्व के बारे में पूरी तरह से जागरूक नहीं हैं, और अपनी कला का गैर-जिम्मेदारी से प्रयोग करते हैं; वे अनजाने में अपने लोगों के मानसिक विनाश में मदद कर सकते हैं।

उन्होंने कहा कि औपनिवेशिक स्वामियों द्वारा लिखित हमारे देश के इतिहास के बारे में स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ‘अंग्रेजों (और अन्य पश्चिमी) लेखकों द्वारा लिखे गए हमारे देश के इतिहास केवल हमारे मन-मस्तिष्क को कमजोर ही कर सकते हैं, क्योंकि वे केवल हमारे पतन के बारे में बात करते हैं। हमारे रीति-रिवाजों, धर्म और दर्शन को बहुत कम समझने वाले विदेशी भारत का ईमानदार और निष्पक्ष इतिहास कैसे लिख सकते हैं?

कार्यक्रम अध्यक्ष प्रो वासुदेव देवनानी विधानसभा अध्यक्ष ने भी स्कूली शिक्षा में अपने शिक्षामंत्री रहते हुए स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम में बदलाव कर किस तरह भारतीयता का बोध युवा विद्यार्थियों में जगाने का प्रयास किया गया,इस सम्बंध में बताया गया। इस पुस्तक के माध्यम से यही सब जानकारी पहुँचाने का कार्य मेरे द्वारा किया गया है।

कार्यक्रम में प्रान्त संयोजक अधिवक्ता देवेश बंसल ने प्रज्ञा प्रवाह के द्वारा की जाने वाली गतिविधयों और कार्यक्रम का संक्षिप्त परिचय रखा। कार्यक्रम के अंत में  महानगर  संयोजक डॉ. राजेश मेठी ने धन्यवाद ज्ञापित किया। कार्यकम में डॉ. एसएस अग्रवाल अध्यक्ष स्वास्थ्य कल्याण समूह व प्रज्ञा प्रवाह के क्षेत्रीय संयोजक वैद्य कमलेश विद्यार्थी सहित अन्य गणमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति रही।

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