उदयपुर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक और वर्तमान में अखिल भारतीय कार्यकारिणी के आमन्त्रित सदस्य हस्तीमल का मकर संक्रान्ति, शनिवार को प्रात: 07:31 बजे उदयपुर में निधन हो गया। वे करीब चार दशक तक राजस्थान में प्रचारक रहे।
शुरू से ही रहे मेधावी
हिन्दू पंचांग के अनुसार हस्तीमल का जन्म श्रावण शुक्ल चतुर्थी, संवत 2002 (1945) को उदयपुर जिले में चंद्रभागा नदी के दक्षिण तट पर आमेट कस्बे में हुआ था। हस्तीमल ने अपना संपूर्ण जीवन आदर्श प्रचारक के रूप में लगाया। वे मेधावी छात्र थे। 1964 में आमेट से हायर सेकेंडरी पास करने से लेकर 1969 में संस्कृत में एम.ए. करने तक प्रथम श्रेणी प्राप्त की। बी.ए. तक मेरिट स्कॉलशिप तथा एम.ए. में नेशनल स्कॉलशिप प्राप्त की।
हस्तीमल किशोरावस्था में ही संघ के स्वयंसेवक बन गए थे। हायर सेकंडरी के बाद उन्होंने नागपुर में संघ का तृतीय वर्ष प्रशिक्षण प्राप्त किया और प्रचारक हो गए। अगले एक दशक तक उदयपुर में संघ के विभिन्न उत्तरदायित्वों सहित जिला प्रचारक रहे। आपातकाल के बाद अगले 23 वर्षों तक जयपुर में केंद्र बना रहा और विभाग प्रचारक, संभाग प्रचारक, सह प्रांत प्रचारक, प्रांत प्रचारक, सह क्षेत्र प्रचारक और क्षेत्र प्रचारक रहे। जुलाई, 2000 में अखिल भारतीय सह बौद्धिक प्रमुख की जिम्मेदारी संभाली। 2004 से 2015 तक अखिल भारतीय संपर्क प्रमुख रहे।
आपातकाल में जयपुर में भूमिगत आंदोलन का किया था नेतृत्व
आपातकाल के दौरान जयपुर के विभाग प्रचारक सोहन सिंह के साथ जयपुर के नगर प्रचारक हस्तीमल (सायं) भूमिगत आंदोलन का नेतृत्व किया था। पुलिस तत्परता से उन्हें खोज रही थी। जौहरी बाजार क्षेत्र के कार्यकर्ताओं की बैठक होनी थी। दोनों प्रचारक मोटरसाइकिल से समय पर बैठक स्थल पर पहुंचे। बाहर मोटरसाइकिल खड़ी करके रुके ही थे कि पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। दोनों को गिरफ्तार करके जयपुर सेंट्रल जेल में रखा गया। आपातकाल के भयावह माहौल ने संघ के अन्य कार्यकर्ताओं की तरह हस्तीमल को भी प्रभावित नहीं किया।
1976 में दीपावली पर उन्होंने एक कार्यकर्ता को लिखा, यह ज्योति पर्व हमारी संघर्ष भावना बलवती करे। अन्याय-दमन-शोषण और आतंक के घनघोर बादलों को चीर-चीर कर हम अपना मार्ग प्राप्त कर सकें और निर्भयतापूर्वक उस पर चल सकें।
चार दशक तक राजस्थान में रहे प्रचारक
हस्तीमल राजस्थान में लगभग चार दशक तक प्रचारक रहे। कार्यकर्ताओं से घर-घर जीवंत संपर्क और सुख-दुख में संभाल उनकी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा थी। पाक्षिक पत्रिका पाथेय कण को प्रारंभ करने में मुख्य भूमिका उन्हीं की रही। ज्ञान गंगा प्रकाशन के विकास-विस्तार में भी उन्हीं की योजना रही। राजनीति को लेकर भी वे दृढ़ विचारों के रहे। संघ की परंपरा के अनुसार किसी विषय पर राय देने तक ही उन्होंने अपने को सीमित रखा। कुछेक अवसरों पर उन्हें राजनीति से प्रभावित करने की भी कोशिशें की गई; लेकिन वे अलिप्त बने रहे।
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