प्रभु-सहचर्य
डॉ. विनीता राठौड़
चौरासी लाख योनियों में से एक
अति दुर्लभ है मानव योनि एक
है इस में इच्छा और कर्म का संपूर्ण समावेश
सार्थक करें इसे, त्याग मन के समस्त आवेश
हों प्रारब्ध, भाग्य और भविष्य के प्रति जागरूक
चलें ईश्ववर-इच्छा के अनुरूप, होने को आत्मस्वरूप
मन के होते चार विकार
अस्मिता, अविद्या, आसक्ति और अभिनिवेश
बुद्धि के गुण होते ये चार
धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य
इन सब से जुड़ा होता अहंकार
अहम् को जब हम देते त्याग
होता आत्मा से आत्मा का साक्षात्कार
और “वसुधैव कुटुंबकम् “भी होता साकार
आध्यात्मिकता का यही अभिप्राय
ईश्वरीय उद्दीपन की अनुभूति हो प्राप्य
ध्यान, प्रार्थना और चिंतन से होकर युक्त
मन के विकारों से होकर मुक्त
अपने अस्तित्व का प्रकाश
प्रभु सहचर्य की लौ से करें दैदीप्यमान।
(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, नाथद्वारा, राजसमन्द की प्राणीशास्त्र की सेवानिवृत्त सह आचार्य हैं)
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