ओस की बिंदिया सजाकर…

भटकाव

डॉ. अंजीव अंजुम  


जब अघाने छेड़ते हैं, बात मेरे गांव की।
हृदय के गहराव में इक, धूल के ठहराव की।

चटक सा श्रृंगार कर जब,
मटकियाँ पनघट चलीं।
डोर में बंध छोर पकड़े,
चोर पानी से मिलीं।

दरपन मन टूक टूक हो गया…

बस इसी भटकाव में थीं, डुबकियाँ बहकाव की।
हृदय के गहराव में इक, धूल के ठहराव की।

ओस की बिंदिया सजाकर,
बहुत शरमाई कली।
गंध का संबंध देकर,
भ्रमर प्रियतम से मिली।

लिख गई समभाव देकर, इक  कथा भटकाव की।
हृदय के गहराव में इक, धूल के ठहराव की।

ओढनी इक फागुनी,
मन से बुनी तन ने चुनी।
जो सजाई मोहनी ने,
अंग पर रंग में सनी।

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बढ़ गई बस चाव में, उलझाव बन गति नाव की।
हृदय की गहराव में इक, धूल के ठहराव की।

मनचली सी पवन के संग,
झूलती लतिका हरी।
लूमती, कुछ झूमती,
डाली को चूमे वल्लरी।

नृत्य करती बावरी, वह झंझरी ज्यों पाँव की।
ह्रदय की गहराव में इक धूल के ठहराव की।।

(लेखक प्रधानाध्यापक एवं राजस्थान ब्रजभाषा अकादमी जयपुर की पत्रिका ब्रजशतदल के सहसंपादक हैं )

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