मन
डॉ. सत्यदेव आज़ाद, मथुरा
कुहरे की छाँव घनी हो गईपुरबइया नाग फनी हो गईदरपन मन टूक टूक हो गया चितवन वह हीर कनी हो गईव्याकुल हैं प्राण अब प्रतीक्षा में
आदमी अब खूब रोता है…
सूख चले नयनों के कूल वर्षों के खण्डहर में आज फिर उग आये प्रीति के बबूल रूपदेह नीलमणि हो गई पुरबइया नागफनी हो गई। दरपन मन टूक टूक हो गया
शेष हैंजीने को – प्रश्नचिन्ह ? सम्बोधन ! कंकरीला कामा , अंतिम विराम ।
है फरारआवारा भाग्य अंककरते हैं दूर से प्रणाम् विधवा हर पंक्ति धनी हो गई पुरबइया नाग फनी हो गई। दरपन मन टूक टूक हो गया
(लेखक आकाशवाणी के सेवानिवृत्त वरिष्ठ उद्घोषक और नारी चेतना और बालबोध मासिक पत्रिका ‘वामांगी’ के प्रधान संपादक हैं )
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