संवेदना

दिशा पंवार, फरीदाबाद
मर गई मनुजता, हंस रही दनुजता।
मनुज से मनुज की न रही संवेदना।
नग्न हो दौड़ती है, भग्न हुई अस्मिता
हर तरफ़ चीखती है, प्रश्न यही पूछती है।
दोष मेरा क्या रहा,जो चीर मेरा हर लिया?
जीव से जीव की, न रही दयालुता।
मर गई मनुजता..……।
रीत ये नई चली है, प्रीत की मधुर गली है
नई कोई हवा चली है, गीत यही घोलती है।
भाव मेरा क्या रहा,जो प्रेम मेरा छल लिया?
दृष्टि से दृश्य की, न रही सटीकता।
मर गई मनुजता……..।
बात मेरी जान लो, वक्त को पहचान लो
शत्रु भी विचित्र है, युद्ध भी सर्वत्र है।
क्या रक्त मेरा श्वेत है, जो अस्त्र मेरा धर लिया
दुष्ट को ईश की, न रही भयावता।
वाणी को न मौन हो, शब्द न विराम हो
अग्नि को न जल मिले, क्रोध को बल मिले
देख लो दनुज तुम, दृढ़ यही कर लिया।
वीर बन लड़ रही, न रही मृदुलता।
मर गई मनुजता, हंस रही दनुजता।
मनुज से मनुज की, न रही संवेदना।
(लेखिका राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय सीही सैक्टर 7 फरीदाबाद, हरियाणा में संस्कृत की प्रवक्ता हैं)
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