कहानी
डॉ. विनीता लवानिया
कैसी हो अपेक्षा? बाहर निकली तो किराएदार सामने पड़ गई। ‘अच्छी हूं भाभी; आज फिर देर हो गई ऑफिस को … मिलती हूं।’ लगभग भागती हुई बोली थी अपेक्षा। लगभग दो साल हुए अपेक्षा और संकेत को हमारे यहाँ किराए पर आए हुए और अब तो जैसे हमारे परिवार का हिस्सा ही बन गए थे।
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यूँ तो सब ठीक था लेकिन कुछ ठीक नहीं था, पता नहीं क्यों एक दिन मैंने निश्चय कर ही लिया अपेक्षा से बात करने का। अपेक्षा की छुट्टी वाले दिन उसे लंच पर बुला लिया। मैं अपनी पूरी तैयारी के साथ उसका इंतजार कर रही थी। अपेक्षा खीर बनाकर ले आई ‘आज मिठाई में खीर खाएंगे, ठीक है ना भाभी?’ अपेक्षा खनकती हुई बोली। पर मुझे चुप देख कुछ हैरान सी हो गई। सूप पीते हुए मैं बिना किसी भूमिका के पूछ बैठी ‘तुमसे कुछ पूछना है अपेक्षा …..’ ‘हां बोलिए! उसने बिना निगाह उठाए कहा। ‘तुमने अभी तक फैमिली प्लान नहीं की? क्यों? क्या कोई और बात है? सारे प्रश्न एक सांस में पूछ डाले। अपेक्षा मुस्कुराई, बोलने लगी ‘भाभी आराम से …मैं तो डर ही गई थी ..हां अभी प्लान नहीं किया, हम अभी तैयार नहीं हैं फैमिली को आगे बढ़ाने के लिए और जल्दी भी क्या है? बस अब बाकी प्रश्न अगली बार …बहुत भूख लगी है चलो खाना खाएं।’
यह क्या हो रहा था, इतिहास दोहरा रहा था। बस चेहरा ही अलग था। मैं कुछ कहना चाहती थी। पर पता नहीं क्यों चुप रह गई। अधिकार के भाव में कमी महसूस हो रही थी या फिर शायद अतीत में जाने से डरती थी। उसके जाते ही यादों के पन्ने फडफडाने लगे, पलटते गए एक-एक करके और ग्यारह साल पहले जाकर थमे, जब शुभम ने एक शाम, बड़े प्यार से मेरा हाथ सहलाते हुए कहा था ‘भव्या… अब हमें बच्चे के लिए सोचना शुरू करना चाहिए। मैंने एकदम हाथ छुड़ा लिया। शुभम के हाथ में से “और मेरा जॉब ? कितनी मुश्किल से मिली है इतनी अच्छी नौकरी? कितना खुश है हम दोनों? और अभी जल्दी क्या है? नहीं अभी नहीं … तुम्हें क्या फर्क पड़ेगा? बस मेरा कैरियर फ्यूचर सब बर्बाद? और वैसे भी मैं करूंगी यह फैसला कि कब मुझे मां बनना है बस।” पहली बार इस तरह बात की थी मैंने शुभम से और वो चुप हो गये। फिर शादी को छ: साल गुजर गए। ऐसा नहीं कि हमारे माता पिता ने हमें कुरेदा नहीं था। पर सभी को जवाब देने का काम शुभम के जिम्मे था।
एक दिन ऑफिस में किसी की मेटरनिटी लीव एप्लीकेशन देखकर मन बदला और शुभम की पसंद के फूल लेकर लौटी मैं उस दिन, उन्हें अपनी मर्जी बताना चाहती थी, मेरे निर्णय में पूरा साथ जो निभाया था। सुनते ही शुभम झूम उठे, बरसों बाद इतना खुश देखा था। फिर क्या था हम सपनों की चादर बुनने लगे, दिन महीने साल गुजरते गए, चादर बुनती गई पर ओढने का समय आया ही नहीं, ” नन्हा सा गुल खिलेगा अंगना, सूनी बहियाँ…..” मन के अंतर में हमेशा गूंजता रहता था। पर कोई नन्हा सा गुल खिलता नजर नहीं आ रहा था। इलाजों में उलझ कर रह गई थी जिंदगी। जिस जॉब के लिए मैंने यह निर्णय लिया था उसी में अरुचि शुरू हो गई थी। परिवार में मिलना, दोस्तों के साथ बाहर घूमना, खाना पीना सब नीरस लगने लगा था। बाजार जाती तो नन्हे-मुन्ने के कपड़े, खिलौनों की दुकान ही दिखाई देती। किसी शादी, पार्टी, जन्मदिन की भीड़ भाड़ में कोई भी नन्ही जान मुझे आकर्षित कर लेती। शुभम की झुंझलाहट की परवाह किए बिना मैं बच्चों को गोद में उठाकर उनकी भीनी महक में डूब जाना चाहती थी। सच है इंसान को वही चाहिए जो उसके पास नहीं है और मेरे आस पास तो सभी के अपनी संतान थी। उसकी पहली हंसी, पहला दाँत, पहला कदम, पहला बोल खूब शेयर होता था व्हाट्सएप ग्रुप में। बच्चे की किलकारी, नन्हे कदमों की आहट, तोतली आवाज में “मां” शब्द स्वप्न मात्र बन गया था। सपनों की चादर में छेद हो गए थे। स्वयं को सक्षम, समर्थ और सशक्त मानने वाले मेरे अहं को मानो अपूर्णता के दंश ने निशक्त कर दिया था। अपने आप को कोसने भी नहीं देते थे मुझे शुभम, बड़ा साथ दिया मेरा। मन के बढ़ते अँधेरे को सूरज का प्रकाश भी रोशन नहीं कर पाया था।
“अरे? अंधेरे में क्यों बैठी हो भव्या? शुभम ने ऑफिस से आते ही पूछा।” भव्या की विचार तंद्रा टूट गयी। चाय पीते समय मैंने सामान्य होने की कोशिश की। पर मन की थकन चेहरे पर साफ दिखाई दे गई शुभम को, “क्या हुआ भव्या कुछ परेशान हो?, इस बात से दोनों ही बिल्कुल अनभिज्ञ कि शुभम के लिए खीर देने आई अपेक्षा दरवाजे पर अपना नाम सुनकर ठिठक गई। ” हां .. …वो आज अपेक्षा की छुट्टी थी तो मैंने खाने पर बुला लिया था। जानती हूं गलत था उनके निजी जीवन में झांकने की कोशिश करना। पर अपने से लगते हैं मुझे और अपेक्षा पूरी तरह मेरा आईना, बस पूछ लिया बच्चे के लिए ….।” “ओफ्फो भव्या ….तुम भी ना …क्यूँ पूछा तुमने? क्या भूल गई अपना समय? क्या हक है हमें और हमने किसी को भी दिया था क्या यह हक ….?” अपेक्षा भी जानती थी कि किसी की बातें सुनना ठीक नहीं। फिर भी वह लौट नहीं पा रही थी। “मैं तो बस अपना अनुभव बताना चाहती थी पर वह सुनना नहीं चाहती थी, कैसे समझाऊं? कैरियर फ्यूचर तभी इंजॉय किया जा सकता है जब आपकी खुशी को बांटने वाले हो। अकेले ना दुख झेला जाता है ना ही सुख भोगा जाता है। चाहे कितनी भी ऊंची उड़ान भरी हो मैंने पर उस उड़ान का क्या मोल दिया है, यह हमसे ज्यादा कौन जान सकता है….” “बस भव्या…”, “तुमने कुछ कहा तो नहीं ना? यह हमसे भी एडवांस जनरेशन है, जब सारे डिसीजन लेते हैं तो अपनी फैमिली के लिए भी उन्हें खुद ही सोचना होगा … चलो निकलो अब इस कड़वी यादों के भंवर से…..,उठो! बाहर खाना खाकर आते हैं।” उधर बिना आहट किए हाथों में भाभी की बातों से और भी मीठी हो चुकी खीर को वापस लेकर अपेक्षा हौले हौले सीढ़ियां चढ़ती जा रही थी। निश्चय का बीज जो रोपित हो गया था आज। बस संकेत से बात करके उसे साकार रूप देने की ओर बढ़ना ही तो बाकी था।
(लेखिका गवर्नमेंट गर्ल्स कॉलेज नाथद्वारा में समाजशास्त्र विषय की एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
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