गणतंत्र: तब और अब

अतुल्य भारत 

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डॉ. सत्यदेव आज़ाद 


किसी भी समाज, संस्था, राज्य, दल व कबीला आदि समूह की गतिविधियों में एकरूपता लाने के उद्देश्य से किसी भी एक सर्वमान्य व्यवस्था का निर्धारण करना आवश्यक होता है। शासन व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाए तो इतिहास साक्षी है कि समय-समय पर देश काल  परिस्थितियों को देखते हुए भारत में विभिन्न शासन प्रणाली संचालित रहीं। इनमें राजतन्त्र, नृपतन्त्र, एकता,गणतन्त्र व लोकतन्त्र आदि  अनेक तन्त्र सक्रिय रहे हैं। ये सभी तन्त्र, सभी प्रणालियां जनहित की दुहाई देती रही हैं किन्तु गणतंत्रात्मक प्रणाली को अपेक्षाकृत अधिक मान्यता प्राप्त होती रही है।

प्राचीन भारत के गणतन्त्रों के विकास क्रम पर दृष्टि डालने से स्पष्ट होता है कि वैदिक काल में सर्व प्रथम राजतन्त्र ही था।  ‘रंगरियन’ में मेगस्थनीज ने लिखा है कि चौथी सदी ई०पू० में भारत के गणतन्त्र का विकास राज तन्त्र के बाद माना जाता था। छठी शताब्दी के गणतन्त्र भद्र, कुरू , पांचाल, शिवि और विदेह आदि पुराणों में वर्णित युद्ध पूर्व के राजतन्त्र ही थे। प्राचीन काल में जहां राज्य संस्थापक क्षत्रीय वंशजों के हाथों में राजस्सत्त थी वहां सर्व क्षत्रीय वर्ग के हाथों में भी थी। ये  राजक गणतन्त्र तथा राजव्यक गणतन्त्र कहलाते थे। महाभारत के शांति पर्व के अनुसार प्राचीन गणतन्त्रों में समस्त अधिकारी एक ही वंश व जाति के थे ।

वैदिक काल में मुद्रा लेखों पर भी गणराज्य का उल्लेख है । यूनानी लेखक मैकफ्रिन्डल की पुस्तक ‘एलेक्जेण्डर्स इनवैंशस’ इनवेंशंस में भी गणराज्यों का उल्लेख पाया जाता है। यद्यपि यह बात सत्य है कि वर्तमान लोकतांत्रिक राज्यों की भांति प्राचीन भारतीय गणतंत्रों  के शासन की बागडोर जनता के हाथों  में न थी। इसके बावजूद उन्हें प्रजातंत्र अथवा गणतन्त्र कहा जाता था। राजनीतिशास्त्र के अनुसार प्रजातन्त्र वह  राज्य है जिसमें सर्वोच्च शासन का अधिकार राजतन्त्र की भांति एक व्यक्ति  के हाथों में केन्द्रित न होकर एक समूह गण या परिषद के हाथों में हो, भले ही सदस्य संख्या कम हो या अधिक।  तभी तो मात्र 6606 व्यक्तियों से युक्त वैशाली का लिच्छवी गणराज्य प्रमुख राज्य माना जाता था। 200 ईस्वी से 400 ईस्वी के मध्य वर्तमान आगरा, जयपुर क्षेत्र में ‘अर्जुनायन’ गणतंत्र अस्तित्व में रहा। इस गणतन्त्र के शासक स्वयं को अर्जुन का वंशज मानते थे। । इनका यौधेय गणतन्त्र बहुत बड़ा था और इसके शासक स्वंय को युधिष्ठर का वंशज मानते थे।

पाणिनी  के समय में छह गणतंत्रों को मिलाकर  त्रिमर्व नामक गणराज्य था। दामणि , वृरू व कम्बोज आदि गणतंत्र पंजाब व सिंधु घाटी के शक्तिशाली गणराज्य थे । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी काठियावाड़ संघ राज्य का उल्लेख है । दक्षिण भारत के स्थानीय शासन में जनता की भागीदारी ज्यादा रहती थी।  फिर भी कहीं गणतन्त्रात्मकराज्य का उल्लेख देखने को नहीं मिलता। 

वर्तमान में  जिस राज्य  में राज्यन का सर्वोच्च पदाधिकारी जनता द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित किया जाए, उस राज्य को गणराज्य और उसकी शासन व्यवस्था को गणतन्त्राक शासन की संज्ञा दी जाती है। भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका व फ्रांस आदि को गणतन्त्र की संज्ञा दी जा सकती है । जबकि  ग्रेट ब्रिटेन की व्यवस्था राजतंत्रात्मक है। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने एक ऐसे संविधान की स्चना की जिसके द्वारा गणतन्त्रात्मक प्रणाली के आदर्शों तक पहुंचा जा सके।

महात्मा गांधी ने लोकतन्त्र व गणराज्य की जो अवधारणा  प्रस्तुत की भी उसके अनुसार दुर्बलतम को भी सर्वशक्ति सम्पन्न के समान ही अवसर मिलना चाहिए । ऐसे  लोकतन्त्र की शुरुआत गांव के स्तर से ही होती है। गांधी जी का लोकतन्त्र रामराज्य की अवधारणा को स्वीकारता है । यानी सामान्य जन भी अपनी भूमिका निभाए । वह पूर्ण निष्ठा से दायित्वों का  निर्वाहन करे। भारतीय गणतन्त्र के विभिन्न घटक के रूप में  एक नागरिक की कुछ अति महत्वपूर्ण भूमिकाओं का निर्धारण किया जासकता है। प्रथम: अनुशासन- प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्रहित में अनुशासित रहने की आवश्यकता है। ज्ञान व अनुशासन पर आधारित लोकतन्य ही सच्चा  लोकतन्त्र होता है। दूसरों को अनुशासन का पाठ न पढ़ा कर हमें स्वत: मर्यादित आचरण करना होगा । प्रत्येक नागरिक को शिक्षा व ज्ञान प्राप्त करने का संकल्प लेना है। नेतृत्व का चयन करते समय जातिगत समीकरणों के मोहपाश में न  बंध कर श्रेष्ठ, बौद्धिक सुसंस्कारित व्यक्तियों को ही, अपना प्रतिनिधि चुनना चाहिए। और हर भारतीय को राजनैतिक दलों पर दबाव डाल कर उन्हें जनता  के प्रति दायित्व बोध कराना है। 
हजारा सौभाग्य है कि भारत  के सर्वोच्च आदर्श की भाव भूमि पर हम विचरण करते हैं। प्राच्य गणतान्त्रिक स्वरूप से लेकर आज तक अनेक करबटें लेने के पश्चात हमने ने यह स्वरूप अंगीकार किया है । आज हमारा तन्त्र है-गण गण का तन्त्र।

(लेखक नारी चेतना और बाल बोध मासिक पत्रिका ‘वामांगी ‘ के प्रबंध संपादक हैं)





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