केसू बड़े कमल के फूल मेरी झांझी ऐ ब्याहन आए

झांझी

पूनम शर्मा पूर्णिमा, अलीगढ़ 


झांझी शब्द, सांझी का अपभ्रंश है या कि नहीं यह मेरे लिए यक्षप्रश्न है ? मेरा बचपन अटूट ब्रज संस्कृति से पोषित है। कल अमावस के अपराह्न, संध्या से पूर्व ही हमारे यहाॅं दीवार पर गाय के गोबर की सहायता से झांझी रखने की परंपरा रही है। ग्रामीण कन्याएं पोखर (ताल) से चिकनी मिट्टी लाकर जेठ /(ज्येष्ठ मास)की गर्मियों में ही सुरक्षित कर लिया करतीं थीं। पितृपक्ष का आगमन मानों सांस्कृतिक पर्व और हर्षोल्लास का अलख जगाने आता है। जहाॅं घर के बड़े पितृपक्ष में श्राद्ध आदि में व्यस्त होते हैं वहीं कन्याएं अपना एक कोना पकड़कर तारों के निर्माण में जुट जाती थीं।

केवल तारे ही नहीं गहने, मुखाकृति ,(म्होंमटकना) हाथ-पांव,खड़ाऊॅं, मोर, चंदा-सूरज इत्यादि इतने जतन और करीने से बनाती हैं कि उसमें चाहकर त्रुटि नहीं खोज सकते। अमावस्या की सुबह घर के बड़े पितृों को विदा करते और बेटियां खड़िया, गेरू हल्दी, नीला रंग, महावर (आल्ता), काजल सिन्दूर इत्यादि लेकर तारों एवं समस्त अवयवों की रॅंगाई -पुताई में व्यस्त हो जाती थीं। एक नन्हीं झांझी जिसे बांदी नाम दिया जाता था, दोनों झांकियों के बीच दीवट बनाया जाता था, जिसपर प्रतिदिन सांझ-सवेरे आरती का दीप और भोग जिमाये जाते थे।

अमावस की संध्या को पार-परोसी, चाची-ताई, भैन-बेटी एक दूसरे की झांझी देख सिहामतीं और यह भी देखतीं कि किसकी सबसे सुंदर झांझी हैं, इसमें  हमारा आंगन विजयी होता था। झांझी मैया की पूजा अमावस से लेकर नवरात्र के नौं दिनों तक की जाती थी, दशहरे की भोर इन्हें भींत से उतार कर कमल पुष्प से खचाखच भरे सरोवर में प्रवाहित कर दिया जाता था। इन्हीं दसों दिन गाॅंव के बालक (लड़के) / छये -छापरे टेसू बनाकर घर-घर से दशहरे के मेले की व्यवस्था नेग के रूप में कर लेते थे। बनाने से लेकर विसर्जन तक की ज़िम्मेदारी बेटियों के अधिकार में आती थी।

मुझे  झांझी की वो पंक्तियां, जिन्हें घर की बड़ी बहनें गाकर झांझी जगाती थीं,अक्सर बहुत याद आती हैं, गुनगुनाती हूॅं और जितना आह्लादित होती हूॅं, उतना ही मन में टीस होती है, कहाॅं आ गये हम, कितना खोया है हमने ? कुछ पंक्तियां —

केसू बड़े कमल के फूल मेरी झांझी ऐ ब्याहन आए,
गाड़ी भरकै गहनें लाए,
गाड़ी भर कै बराती लाए,
गाड़ी भर के कपड़े लाए,
जब मेरी झांझी ऐ ब्याहने आए -२

पोखरिया की पार पै हरी रे गिझाई,
मैं तोसों पूझूं तेरे कै भाई,
आठ-भतीजे, नौ-दस भाई,
बड़ कौ फूल, बगर मेरी जग जइयो-२
का मेरी झांझी खावैगी, का मेरी झांझी ओढ़ेगी–२

माॅं , भैया कहाॅं ब्याहे,
अलबर ब्याहे, पलवल ब्याहे, दिल्ली ते बहू लाए,
माॅं बहुअल कैसी आईं ?
नाक चना-सी, म्हों मटरा सौ, कमर धरी तकुआ सी,
माॅं रोटी कितनी खावै,
बेटी चये के चये उड़ावै,

माॅं पानी कितनों पीवै,
बेटी घड़े के घड़े उड़ावै
अरमान मेरी झांझी !!
आरतौ री आरतौ मेरी संज्जा माई आरतौ,
कसेरू की छोरी फूल बखेरें।।
अलीगढ़ की छोरी धान बखेरें,

इत्यादि संस्कार गीत कब किसने लिखे, यह भी यक्षप्रश्न है ? इन स्मृतियों का श्रेय ईश्वर, अभिभावकों और बहनों को जाता है, जिनके लिए मैं नन्हीं जान पिछलग्गू थी, चूंकि यह सब मेरे लिए ग्राम पदार्पण के बाद कौतूहल का विषय हुआ करता था।

(लेखिका शिक्षक हैं और हिन्दी एवं ब्रजभाषा की कई विधाओं में लेखन करती हैं)

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