श्रीगुरूनानक देव जी महाराज का राजस्थान प्रवास, यहां जानें सिख गुरू ने किन-किन नगरों में की यात्राएं

श्रीगुरुनानक जयंती पर विशेष 

गुरचरण सिंह गिल, राष्ट्रीय अध्यक्ष, राष्ट्रीय सिख संगत  


श्री गुरूनानक देव जी महाराज का 552 वां  प्रकाशवर्ष न केवल सिख समाज बल्कि विभिन्न सामाजिक धार्मिक संगठन सारे विश्व में मना रहे हैं। राजस्थान के प्रवासी लोग जो कलकत्ता में अपने सुस्थापित व्यापार एवं कारोबार से प्रफुल्लित हैं, उनकी जड़ें भी अभी भी राजस्थान की भूमि, यहां के पवित्र तीर्थ स्थानों व लोक देवताओं से न केवल जुड़ी हैं बल्कि निरंतर राजस्थान में उन लोगों का आना-जाना रहता है। इसलिए स्वाभाविक रूप से राजस्थान जो विभिन्न प्रवासी समूहों को आपस में माला की तरह पिरोए हुए है, कि यह स्वाभाविक जिज्ञासा व आस्था है कि श्री गुरूनानक देव जी महाराज का राजस्थान में भी प्रवास हुआ है तथा उनकी स्मृति के कई स्थान राजस्थान में भी हैं। आज नई हवा के इस अंक में श्री गुरूनानक देव जी की जयंती पर उनके राजस्थान प्रवास पर इस विशेष आलेख का प्रकाशन किया जा रहा है।

श्री गुरुनानक देव जी महाराज का जन्म संवत् 1526 तदानुसार ई. संवत् 1469 में राय भोए की तलवण्डी (जिसे अब ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है) जिला शेखुपुरा पूर्वी पंजाब, पाकिस्तान में पिता महता कालूदास एवं माता त्रिपता की कोख से हुआ। कारोबार की दृष्टि से उनके जीजा जैतराम जो कि सुलतानपुर लोधी के नबाव के यहां राजस्व अधिकारी थे, ने श्री गुरुनानक देव जी महाराज को मोदीखाने का प्रभारी / अधिकारी लगवा दिया।

ई. संवत् 1497 में एक दिन श्री गुरुनानक देव जी महाराज ने वेही नदी पर स्नान करते समय अचानक डुबकी लगाई और तीन दिन बाद वह प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि न कोई हिन्दू, न मुसलमान, परमात्मा केवल एक है और वह सबका है और उसको उन्होंने नाम एक उंकार दिया। श्री गुरुनानक देव जी महाराज ने कहा कि आज सारी पृथ्वी झूठ, विरोध, ईष्या, क्रोध, अहंकार और पापों की अग्नि में जल रही है। इसलिए इनको नाम रूपी अमृत का छींटा देकर ही ठण्डा किया जाना है जिसके लिए एक स्थान पर बैठकर ये कार्य नहीं हो सकता है। उस समय गुरुजी के दोनों  बच्चे छोटे थे और छोटा तो गोद में ही था। उन्होंने इसके लिए अपनी धर्मपत्नि और माता-पिता को तैयार किया, उनकी बहन नानकी तो पहले ही गुरूजी के प्रति आस्था रखती थी। इसलिए उसने गुरुजी की विश्वयात्रा के लिए सहयोग किया व अनुकूल वातावरण बनाया। श्री गुरुनानक देव जी महाराज की यह यात्राएं उदासीया कहलाती हैं।

गुरूजी ने इन यात्राओं में वाद विवाद का नहीं बल्कि संवाद का मार्ग अपनाया। उन्होंने पृथक उदासी सनातन हिन्दू तीर्थस्थलों की ई. 1497 से 1508 की यात्रा की, जिसमें वह कुरुक्षेत्र, पानीपत, हरिद्वार, गोरखमता (नानकमता), केदारनाथ, बद्रीनाथ, मथुरा, अयोध्या, काशी, गया, पाटलीपुत्र, कामरूप, धुवडी, ढाका, कटक, जगन्नाथपुरी तक जाकर रोहेलखण्ड होते हुए वापिस पंजाब आए।

दूसरी यात्रा उन्होंने दक्षिण के तीर्थों जहां उन्होंने मुस्लिम फकीरों, जैन, बौद्ध व योगीयों से संवाद किया। वे भटिण्डा, सिरसा, सावा, बीकानेर, कोलायत, अजमेर, पुष्करजी, इंदौर होते हुए गोलकुण्डा, चैन्नई, पाण्डुचेरी, तनजौर व श्रीलंका तक गए। तीसरी यात्रा उन्होंने हिमालय में उत्तराखंड, जम्मू, मटन, कुररमघाटी होते हुए हिमालय में सिरमौर, गढवाल, हेमकुण्ड साहिब, नेपाल, मानसरोवर होकर सिक्कम, भूटान, चीन, अरुणाचल प्रदेश लासा, लद्दाख, श्रीनगर, जम्मू, सियालकोट होते हुए वापिस आए। यह यात्रा लगभग 2 वर्ष की थी।

चौथी उदासी मुस्लिम अनुयायियों से संवाद करने के लिए पश्चिम की कि जिसमें शकरपुर, रोहिताश, गाजीखा, सिंध, मक्का शरीफ, बाहुपुर, मदीना, ईराक, बगदाद आदि की यात्रा की। इसके बाद वे करतापुर में आकर अपना संतों वाला चोला उतारकर कृषि कार्य में लग गए, जहां उन्होंने लोगों की सेवा व भोजन आदि के लिए लंगर चलाया, ज्ञान के लिए गुरवाणी का प्रचार-प्रसार किया तथा अंत तक यहीं प्रभु से जा मिले। इस बीच में दो वर्ष के लिए वे अचल, बटाला तथा मुलतान आदि भी गए। अचल बटाले में नाथ योगियों को उन्होंने मार्गदर्शन किया तथा मुलतान में सोफी फकीरों को केवल ज्ञान नहीं बल्कि प्रेम का मार्ग बताया। उक्त सभी स्थानों से आज भी उनकी स्मृति के स्थान बने हुए हैं तथा प्रत्येक स्थान की कथाएं भी उपलब्ध हैं लेकिन हैं यहां राजस्थान का संदर्भ होने से उल्लेखित नहीं किया जा रहा है।

राजस्थान का प्रवास उन्होंने अपनी दूसरी उदासी के समय किया। वे सिरसा से साहाबा, बीकानेर, कोलायत, जोधपुर, नवलगढ़, खाटूश्याम, पुष्करजी, अजमेर, उदयपुर,चित्तौड़ , झालरापाटन आदि स्थानों पर गए और लोगों व धार्मिक पुरुषों को ज्ञान का सही मर्म और जीवन का सच्चा आशय बताया। उनकी स्मृति से जुड़े स्थान जिन्हें आज तीर्थस्थल के रूप में पूजा जाता है। आइए जानते हैं, उनके बारे में

चूरू में साहाबा साहिब
जिला चुरू में तारानगर के पास साहाबा स्थान पर नाथ योगियों का केन्द्र था। नाथ योगी रिद्धि-सिद्धि के आधार पर लोगों को अपने पीछे लगाए रखते थे। श्री गुरुनानक देव जी महाराज यहां पर आए  और एक टीले पर जा विराजे जो कि आज भी राजस्व रिकार्ड में प्राचीन समय से ही नानक टीले के रूप में दर्ज है। लक्खीशाह बजारा की गायें गर्मी के कारण प्यासी मर रही थीं लेकिन साहाबा के तालाब में पानी नहीं था जिसका कारण नाथों द्वारा जनता को अपने पीछे लगाने के लिए सुखा दिया बताया था। लक्खीशाह ने नाथ योगी से कहा कि आप करामात करके पुनः सरोवर को भर दो। उस योगी ने कोशिश भी की, पर जल नहीं आया तो वह बोला कि कोई दूसरा योगी मेरे मंत्र को काट रहा है और इसका इलाज भी वही कर सकता है।

इस पर लक्खीशाह बंजारा गुरुनानक देव जी महाराज के पास गया तो गुरु जी ने आकर कहा कि इस स्थान को खोदो तो जल का स्त्रोत निकलेगा और इसका जल कभी-भी नहीं  सूखेगा और हुआ भी ऐसा ही। नानक टीला पर संत बाबा प्रीतम सिह जी ने एक भव्य गुरुद्वारा बनवाया है तथा इस सरोवर की कारसेवा तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के समय पूरी की तथा सरकार के बजट से सरोवर का निर्माण कराया। यहां चौबीस घण्टे लंगर चलता है तथा भव्य गुरुद्वारा भी स्थित है।

कोलायत
साहाबा से होते हुए श्री गुरुनानक देव जी महाराज कोलायत गए। यह स्थान कपिल मुनि जो कि सांख्य योग के प्रणेता थे, की पीठ के रूप में स्थापित है तथा वहां इस समय एक पवित्र सरोवर है जहां स्नान करने से मोक्ष प्राप्त होने की मान्यता है। श्री गुरुनानक देव जी महाराज के कोलायत प्रवास के समय जैन अनुयायी जिन्हें उस समय दुढियां भी कहा जाता था, निवास करते थे।

जैन मुनि जीव हत्या न हो इसके लिए मुंह पर पट्टी बांधना, मल त्यागने, स्नान करने आदि में कई प्रकार के कर्मकाण्डों से ग्रस्त थे। सांख्य योग के अनुसार इस सृष्टि की रचना परमात्मा ने नहीं कि बल्कि पांच तत्वों (हवा, जल, पृथ्वी, सूर्य व आकाश) के मिलन से क्रमिक विकास से हुई है। मनुष्य अपने तीन गुणों तमो, रजो और सतो के कारण इस सृष्टि  के विकास व भोग में हिस्सेदार बनता है तथा सतोगुण के कारण मोक्ष प्राप्त करता है। कोलायत के जैन मुनि भी यह मानते थे कि सृष्टि की रचना प्रभु ने नहीं की है, मनुष्य ही अपने सतकर्मों से उच्चता प्राप्त कर ईश्वर का रूप हो जाता है।

श्री गुरूनानक देव जी महाराज ने जैन मुनियों से संवाद किया कि ये जो प्रभु है वही लोगों को जन्म देता है और मारता है कि बिना दान और स्नान के ये सिर धूल से भर जाता है। ये  अड़सठ  तीर्थ देवताओं ने ही स्थापित किए हैं और जहां त्यौहार होते हैं और परमात्मा की स्तुति का अनुभव होता है। जन्म और मृत्यु के समय भी तो सिर पर जल डाला जाता है। बरसात से जो जल आता है उसके कारण सारी फसलें, घास, वनस्पति आदि होती है। इसी प्रकार परमात्मा समुद्र है जिसकी शिक्षाओं नदियां बनती है और मनुष्य पवित्र होता है। जैन मुनि गुरूजी के उपदेश से प्रभावित हुए और गुरु जी कि शिक्षाओं का एक केन्द्र स्थापित हुआ। वर्तमान में कोलायत में एक छोटा सा गुरुद्वारा बना हुआ है जो कि किसान परिवार ने पहले अपनी जमीन देकर बनाया था। अब उसका वृहद स्वरूप सामने आ रहा है। जहां चौबीस घण्टे लंगर चलता है और धीरे-धीरे गुरुद्वारा साहिब भव्य स्वरूप लेकर तीर्थ के रूप में विकसित हो रहा है।

पोकरण
श्री गुरुनानक देव जी महाराज कोलायत के बाद पोकरण गए, जहां पर मीठे जल – की बहुत समस्या थी। वहां गुरूजी ने एक कूआं खुदवाया जिसमें पर्याप्त व मीठा जल निकला। इस स्थान पर स्मृति में एक भव्य गुरुद्वारा बना हुआ है।

पुष्करजी
यह हिन्दू सनातनी परंपरा के अनुसार ब्रह्मा  जी से जुड़ा प्राचीन स्थल है। यहां पर विशाल प्राकृतिक सरोवर है जिसके 52 घाट हैं। यहां स्नान करने से मोक्ष प्राप्त होने की मान्यता है। श्री गुरूनानक देव जी महाराज ब्रह्मा जी के मंदिर में भी दर्शन करने गए। श्री गुरूनानक देव जी महाराज ने सरोवर में स्नान करने के कर्मकाण्ड के बारे में कहा कि जब तक मनुष्य अंदर से विशुद्ध नहीं होता, तब तक वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। यदि उसके मन में विशुद्ध / बुरे ख्याल बने रहें तो ऐसे स्नान से कोई लाभ नहीं मिलता। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि यदि कोई व्यक्ति भगवान का नाम लेता है लेकिन उसके मन में धन-संपदा आदि के लिए लालच का भाव बना रहता है तो उसका भगवान का स्मरण / नाम लेने से कोई लाभार्थ नहीं है।

श्री गुरूनानक देव जी महाराज की स्मृति में  विशाल गुरूद्वारा बना हुआ है जिसकी कारसेवा बाबा लक्खासिंह जी ने करवायी है। पुष्कर जी में श्री गुरुगोविंद सिह महाराज की स्मृति में गुरुगोविद घाट भी बना हुआ है जो कि राष्ट्रीय सिख संगत के आग्रह पर राजस्थान सरकार ने घोषित किया था। सिख परंपरा के छठे गुरु हरगोविंद जी महाराज ने जब 52 राजाओं को ग्वालियर की जेल से मुक्त कराया था तो वे सीधे पुष्करजी स्नान करने आए  थे, जहां उन्होंने 52 घाट बनवाए।

अजमेर
श्री गुरुनानक देव जी महाराज पुष्करजी के बाद अजमेर पधारे, जहां उन्होंने अजमेर स्थित महादेव जी की गुफा तथा ख्वाजा चिश्ती की दरगाह पर भी गए। दरगाह में वे मकबरे के पास बैठने लगे तो मुजाहिश ने यह कहा कि हिन्दुओं को यहां बैठने की इजाजत नहीं है जिस पर गुरूनानक देव जी महाराज ने कहा कि मुसलमान कहलाना कठिन है, आप तभी मुसलमान कहलाने के अधिकारी हैं यदि आप अपने पैगम्बर पर पूर्ण आस्था रखते हैं तथा जीवन-मृत्यु के भ्रम से अपने को अलग रखते हुए उसकी रजा में रहते हुए सभी जीवों  पर मेहरबान रहते हैं। इस पर मुसलमानों ने कहा कि हम मुस्लिम मत के पांचवें स्तम्भ यथा कलमा, जकात, हाजी, रोजा व नमाज के धारक हैं। इसलिए हम सच्चे मुसलमान हैं, तब गुरुजी ने कहा कि सच्चाई ईमानदार जीवन, दान, साफ, नियत और परमात्मा का यश यही पांचों सच्चे स्तम्भ हैं। यदि आप अच्छे कार्यों को बार-बार करते हैं तभी आपकी सच्ची नमाज हैं।

नाथद्वारा
श्री गुरुनानक देव जी महाराज नाथद्वारा स्थित श्रीनाथ जी के मंदिर के भी दर्शन किए, वहां के महंत ने बहुत ही कीमती गहने व जेवरात पहने हुए थे तथा कुछ अंहकारी प्रवृति के थे। श्री गुरुनानक देव जी महाराज ने वहां कहा कि चंदन को शरीर पर लगाकर, रेशम, रतन आदि के वस्त्र पहनने, गले में मोती की माला ढालने या अच्छे श्रृंगार करने से सुख नहीं मिलेगा, जब तक कि परमात्मा से आपका सच्चा प्यार नहीं है। घोड़े, हाथी, ताज, क्षत्र आदि सब अंहकार पैदा करते हैं  तथा प्रभु विस्मृत हो जाता है। इससे महंत जी विनम्र हो गए व अपने जीवन में परिवर्तन ले आए।

झालरापाटन (झालावाड)
यह स्थान राजा पीपा जो कि गगरोंद के राजा थे, से जुड़ा है जिसके तीन तरफ नदी है व पर्वत की चोटी के किले पर स्थित है। राजा पीपा ने काशी निवासी विशिष्ट अद्वैत मत के प्रणेता रामानंद जी महाराज के शिष्य बनकर राजपाठ त्याग दिया था। उस समय राजा पीपा के अनुयायी गुरूजी को मिले तथा उनसे वार्ता की। श्री गुरुनानक देव जी महाराज राजा पीपा के कुछ शब्द भी अपने साथ लेकर आए  जिन्हें बाद में श्री गुरुग्रन्थ साहिब में गुरुतुल्य सम्मान मिला।

उक्त स्थानों पर गुरूजी की स्मृति में गुरूद्वारे स्थित हैं तथा उनके द्वारा वहां पर दिए  गए  उपदेश “शब्द” (गुरूवाणी भजन) के रूप में श्री गुरुग्रंथ साहिब जी में विद्यामान हैं। इन स्थानों के अतिरिक्त गुरूजी रामदेवरा, जोधपुर, नवलगढ़, खाटूश्याम आदि स्थानों पर भी गए  जहां उन्होंने तत्कालीन संतों, भक्तों, फकीरों से संवाद किया।

नवलगढ़ में दूदा स्थान पर उस समय के हरि नाम से जानने वाले सिद्ध संत से भी गुरूनानक देव जी महाराज ने संवाद कर उन्हें सिद्धियां दिखाने के मार्ग को त्यागकर सहज व सरल तरीके से परमात्मा का स्मरण करने का उपदेश दिया। गुरूजी माधुरी देवी के मंदिर भी गये तथा इसके अतिरिक्त पाली, सिरोही, पाटन देवगढ़ आब व बांसवाड़ा भी गये जहां से माही और चंबल नदी को पार करते हुए मध्यप्रदेश में प्रवेश किया।

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