स्वार्थ
डॉ. शिखा अग्रवाल
कैसे पहचानें किसी को,
एक चेहरे पर
ढेरों चेहरे चढ़ा कर,
इंसान तो जैसे
मायावी हो गया।
कभी बुद्ध सा उपदेश देता,
कभी राम सा वेश धरता
तो कभी रावण बन गया,
इंसान तो जैसे
बहरूपिया हो गया।
दूसरों की पीड़ा पर
अपनी खुशी छिपाता,
पीठ में छुरा घोंपता इंसान,
भेड़ की शक्ल में
जैसे भेड़िया हो गया।
शांति कपोत उड़ाता,
छुप कर वार करता,
मित्रता का ढोंग रचाता,
पल पल रंग बदलता इंसान
तो जैसे गिरगिट हो गया।
अपने स्वार्थ के लिए
रिश्तों को भुनाता,
इंसानियत को भूल,
इंसान के अंदर का इंसान
ना जाने कहां खो गया।
(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, सुजानगढ़ (चूरू) में सह आचार्य हैं)
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