
डॉ. अलका अग्रवाल
डॉ.भीमराव आम्बेडकर, जिन्हें हम आज बाबासाहेब आम्बेडकर के नाम से जानते हैं, का जन्म 14 अप्रेल 1891 को, मध्य प्रदेश के महू में हुआ था। हम साधारणतया उन्हें केवल संविधान निर्माता या फिर, दलित उद्धारक या हिन्दू से बौद्ध धर्म परिवर्तित करने वाले या गांधी और कांग्रेस के विरोधी के रूप में जानते हैं। परंतु ये हमारी अल्पज्ञता है कि हमने आज तक उनकी आत्मकथा पढ़नी तो दूर, हमें उसका नाम तक नहीं पता। ‘वेटिंग फ़ॉर वीज़ा’ शीर्षक वाली उनकी आत्मकथा (1935-36 में लिखित) कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाई जाती है, लेकिन हम अपने विश्व- विद्यालयों में इसे नहीं पढ़ाते।अगर इसे पढ़ें तो भारत में उनके अस्पृश्यता के अनुभवों से हमारी भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के प्रति मन में आक्रोश का ज्वार उमड़ने लगता है। तब उनके जीवन की वे घटनाएं और नीतियां जो अन्यथा समझ में नहीं आतीं,सहज ही समझ में आ जाती हैं।

आर्थिक रूप से कमजोर न होने पर भी, महार जाति में जन्म लेने के कारण, स्कूल और कॉलेज में ही नहीं, विदेश से पढ़ कर आने के बाद भी, बड़ौदा में जब वे उच्च पद पर थे, उन्हें रहने के लिए होटल, ठहरने के लिए सराय नहीं मिल पाई। इन बुरे अनुभवों के साथ ही कुछ इसी समाज के ढांचे में रहते हुए भी अलग लोग भी थे, जो अपवाद थे। उनके स्कूल टीचर, जो ब्राह्मण थे, पर उनकी प्रतिभा को पहचानते थे। उनके साथ भेदभाव से दुखी होते थे। उन्होंने अपना सरनेम ही उन्हें दे दिया, जिससे उन्हें महार न समझा जाए और वे जीवन भर, अम्बेडकर कहलाए। भारत में एमए,करने के बाद कोलंबिया यूनिवर्सिटी से उन्होंने फिर से एमए किया तथा पीएचडी भी की। यहां महाराजा बड़ौदा (महारानी गायत्री देवी के नाना) ने उन्हें स्कॉलरशिप पर भेजा (1913 -1915 ) था। इसके बाद उन्होंने लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स (1916 -1922) से एमएससी और डीएससी की उपाधि हासिल की। उनके शोध का विषय था ‘भारतीय रुपए की समस्या:उत्पत्ति और समाधान’।
भारत की स्वतंत्रता के बाद पौण्ड के मुकाबले रुपए की कीमत उनसे परामर्श के बाद ही तय की गई। इसी दौरान उन्होंने लन्दन से, बार एट लॉ भी कर लिया था। उनकी विधि विशेषज्ञता के कारण उन्हें स्वतंत्र भारत का प्रथम विधि और न्याय मंत्री तो बनाया ही गया, संविधान निर्माण की प्रारूप समिति का भी अध्यक्ष बनाया। उन्होंने 60 देशों के संविधानों का गहन अध्ययन कर संविधान का प्रारूप तैयार किया। वे मुंबई में प्राध्यापक भी रहे और एक शिक्षाविद के रूप में वे मानते थे कि स्वतंत्रता, समानता, बन्धुत्व, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय ही शिक्षा का आधार होना चाहिए, जो उनके जीवन के कटु अनुभवों का निचोड़ भी था। वे बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने ‘मूकनायक’ और ‘बहिष्कृत भारत’ जैसे पत्र निकालकर समाज में जागरूकता की मशाल जलाई। बहिष्कृत हितकारिणी सभा का गठन भी किया। वे समाज शास्त्री ही नहीं, समाज सुधारक भी थे। उन्होंने दलितों, महिलाओं और श्रमिकों के साथ भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष किया और उनके सशक्तिकरण के लिए प्रयत्नरत रहे। इस संदर्भ में उनका यह कथन अक्सर उद्धृत किया जाता है, ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो।’
एक राजनीतिशास्त्री के रूप में, वे मानते थे कि लोकतंत्र की सफलता के लिए पूंजीवाद और जातिवाद दोनों की समाप्ति जरूरी है।आज भी यह समय की कसौटी पर कस कर प्राप्त हुआ सच है। कैलिडोस्कोपिक व्यक्तित्व के धनी, भारत रत्न डॉ.आंबेडकर को हमें आज और भी अधिक जानने औऱ उनके विचारों और चिंतन से देश और दुनिया को लाभान्वित करने की जरूरत है।
(लेखक सेवानिवृत कालेज प्राचार्य हैं )
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