स्वामी विवेकानन्द महज 39 साल जिए, पर कर गए चौंकाने वाले काम, जानिए कितना विशाल व्यक्तित्व था उनका

12 जनवरी: अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस

डा.युवराज तेज, विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी, राजस्थान

स्वामी विवेकानन्द सिर्फ गेरुए कपड़ों में एक सन्यासी नहीं थे। वे पूरब और पश्चिम, धर्म और विज्ञान, अतीत और वर्तमान, परंपरा और आधुनिकता के बीच सवा सौ साल पहले एक सेतु बने थे। धर्म दर्शन और आध्यात्म का पुल। कर्मकांड से परे। वैश्विक मंच पर भारतीय आध्यात्म के ब्रांड एम्बेसेडर। उन्होंने धर्म, आध्यात्म को किताबी पन्नों से निकाल, मठों से बाहर ला, सम्प्रदायों से छीन उसे वैश्विक फलक पर बिखेरा था। स्वामी जी ने एक दफा फिर साबित किया कि भारत विश्वगुरु है। उनके धार्मिक विचारों में भारत के लोक, संस्कृति और व्यवहार का निचोड़ था। कविगुरु रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने ऐसे ही नहीं कहा था “भारत को समझने के लिए विवेकानन्द को पढ़ना होगा।”

आज जीवन का मतलब, अर्थ और आशय का मर्म तलाशती पूरी पीढ़ी विवेकानन्द के पास जवाब ढूंढ सकती है। जिस पीढ़ी के लिए अकबर इलाहाबादी कह गए हैं  “ अब क्या बताऐं अहबाब क्या कारे-नुमाया कर गए। बी.ए. हुए, नौकर हुए। पेंशन मिली, फिर मर गए।” ऐसे लोगों को जीवन के मायने विवेकानन्द के यहां मिल सकते हैं। निराशा और हताशा से मुक्ति का रास्ता स्वामी जी के पास हैं। विवेकानंद ने आवाहन किया था उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य न प्राप्त कर लो। शायद इसीलिए महात्मा गांधी तक को कहना पड़ा ‘स्वामी विवेकानन्द को पढ़कर मेरी देशभक्ति और बढ़ गयी।’

यह कहना गलत नहीं है कि 11 सितंबर, 1893 को शिकागो के विश्व धर्म संसद सम्मेलन में स्वामी जी के भाषण से ही पश्चिम में भारतीय धर्म दर्शन के दरवाजे खुले थे। धर्म संसद में उनका धारा प्रवाह भाषण पश्चिमी दुनिया का भारतीय आध्यात्म से पहला और सीधा परिचय था। इस भाषण से वहां  का आम आदमी भारतीय आध्यात्मिक सम्पदा को समझ पाया। अब तक सिर्फ कुछ लोगों तक ही यह समझ बनी थी। स्वामी जी के भाषण में पहली दफा ‘भाईयों और बहनों’ के सम्बोधन सुन पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा था। भारत का यह युवा सांस्कृतिक दूत विश्व के सबसे युवा देश में था। ऐसे वक्त पर जब मंच से हर वक्ता अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताने पर तुला हुआ था। विवेकानन्द ने ऐलान किया कोई धर्म दूसरे धर्म से श्रेष्ठ नहीं है। सारी नदियां आखिरकार सागर में मिलती हैं। फिर एक दूसरे से श्रेष्ठता का क्या मतलब ? विवेकानन्द बिना बुलाए तमाम जुगाड़ कर उस धर्म संसद में किसी तरह पहुंचे। पर जब उनकी बारी आई तो छा गए।

स्वामी विवेकानन्द महज 39 साल जिए। पर इस दौरान हजारों वर्षों का काम कर गए। उन्होंने भारत  को आध्यात्मिक रूप से जागृत किया। परेशानियों और मुसीबतों के पहाड़ के बीच उनका जीवन बीता। अभावों में पैदा हुए और आजीवन इससे घिरे रहे। वे जब तक जीए बीमारियों से जूझते रहे। कहते हैं पूरे जीवन में उन्हें 31 तरह की बीमारियां हुई। पर उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की। छोटी उम्र में चौंकाने वाले काम ज़रूर करते गए। वे असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे। गरीबी से ग्रस्त, अभावों में जीते, बीमारियों से घिरे इस फकीर सन्यासी ने देश की आध्यात्मिक चेतना की धारा ही बदल दी। उन्हें पता चल गया था कि भारत को तब की परिस्थितियों में सबसे ज्यादा किस चीज की जरूरत थी। विवेकानन्द के मुताबिक “भारत को समाजवादी अथवा राजनैतिक विचारों से प्लावित करने से पहले जरूरी है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाए।” यही उन्होंने किया भी।

विवेकानन्द विद्यार्थी जीवन में ही ब्रह्म समाज में शामिल हो गए थे। ‘ब्रह्म समाज’ हिन्दू धर्म में सुधार लाने और उसे आधुनिक बनाने का प्रयास कर रहा था। पर विवेकानन्द पश्चिमी दार्शनिकों के निरीश्वर भौतिकवाद और ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ भारतीय विश्वास के बीच गहरे द्वंद से गुजर रहे थे। उसी वक्त उनकी मुलाकात रामकृष्ण परमहंस से हुई। जिन्होंने उन्हें विश्वास दिलाया कि ईश्वर वास्तव में हैं और मनुष्य उसे प्राप्त कर सकता है।

रामकृष्ण ने नरेन्द्र को विवेकानन्द बना दिया। 25 साल की उम्र में उन्होंने गैरिक वस्त्र धारण किए। देश के पुर्ननिर्माण के लिए वे पैदल भारत भ्रमण पर निकले। छ: साल के इस भ्रमण में वे राजा और रंक दोनों के अतिथि रहे। उनकी यह महान यात्रा कन्याकुमारी में खत्म हुई। कन्याकुमारी में जहां भारत भूमि खत्म होती है उसी से कुछ दूरी पर वह शिलाखंड है जहां बैठ स्वामी विवेकानन्द ने 24 से 27 दिसंबर 1892 तक ध्यान लगाया। इस शीला पर पार्वती ने शिव से विवाह के लिए तपस्या की थी। उन्हें यहीं जीवन का मकसद मिला। विश्वबंधुत्व का। राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण का। जिसे उन्होंने अगले साल 1893 में शिकागो में फैलाया। स्वामी जी वहां बिना बुलाए गए थे। चले तो गए पर धर्मसंसद में उनके प्रवेश की इजाजत मिलनी कठिन थी। उनको प्रवेश न मिले इसके प्रयास हुए। भला पराधीन भारत क्या संदेश देगा। यूरोपीय समाज को तो भारत के नाम से वैसे ही घृणा थी। विवेकानन्द ने दुनियाभर से आए सात हजार प्रतिनिधियों के बीच हिन्दू धर्म की गौरव की स्थापना की। पगड़ी पहने इस स्वामी की एक झलक के लिए लोग खड़े हो गए। यहूदीवाद और ईसाइयत के विचारों के आदी हो चुके लोगों के लिए योग और ध्यान का विचार नया और रोमांचक था। अंग्रेज भारत विद् ए॰एल॰ वाशम ने उन्हें इतिहास का पहला व्यक्ति बताया जिन्होंने आध्यात्मिक संस्कृति का आधुनिक विश्व से संवाद कायम कराया।

अमेरिका से लौटने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने 1897 में कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन तथा 1898 में वेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना की। तब उसके तीन केन्द्र थे वेलूर मद्रास का रामकृष्ण मिशन और न्यूयार्क की वेदांता सोसाइटी। आज भी बीस से ज्यादा देशों में इसकी शाखाएं हैं। पर रामकृष्ण मिशन के भारत के बाद सबसे अधिक केन्द्र अमेरिका में हैं।

स्वामी जी जिस सहजता से लोगों को धर्म की बारीकियां समझाते थे। उसी सहजता से खुद भी समझते थे। वो रोजमर्रा की घटनाओं को अपने कहे के सुबूत के तौर पर पेश करते थे। जब स्वामी विवेकानंद अमेरिका गए थे, एक महिला ने उनसे शादी करने की इच्छा जताई। स्वामी विवेकानंद ने उस महिला से इसकी वजह पूछी।उस महिला का उत्तर था वो उनकी बुद्धि से बहुत मोहित है.और उसे एक ऐसे ही बुद्धिमान बच्चे कि कामना है।

स्वामी जी ने महिला से कहा कि चूँकि वो सिर्फ उनकी बुद्धि पर मोहित हैं इसलिए कोई समस्या नहीं है. उन्होंने कहा मैं आपकी इच्छा को समझता हूँ। शादी करना और इस दुनिया में एक बच्चा लाना और फिर यह जानना कि वो बुद्धिमान है कि नहीं, इसमें बहुत समय लगेगा। फिर ऐसा होगा ही इसकी गारंटी भी नहीं है। इसके बजाय, आपकी इच्छा को तुरंत पूरा करने हेतु मैं आपको एक गारंटेड सुझाव दे सकता हूँ। मुझे अपने बच्चे के रूप में स्वीकार कर लें। आप मेरी माँ बन जाएँगी। और मेरे जैसा बुद्धिमान बच्चा पाने की आपकी इच्छा भी पूरी हो जाएगी। महिला स्वामी जी की विद्वता और सहजता के आगे अवाक् थी।

एक दूसरी घटना स्वामी जी जयपुर के पास एक छोटी-सी रियासत के मेहमान बने। रियासत के राजा ने उनके लिए एक स्वागत समारोह रखा।  इस समारोह में रंग जमाने के लिए उसने बनारस से एक प्रसिद्द वेश्या को बुलाया। जैसे ही स्वामी विवेकाकंद को इस बात की जानकारी मिली तो उन्होंने समारोह में जाने से इनकार कर दिया। यह खबर वेश्या तक पहुंची। राजा ने जिस महान विभूति के स्वागत समारोह के लिए उसे बुलाया है। वह उसकी वजह से कार्यक्रम में आ रहे हैं। तो वेश्या काफी आहत हुई और उसने सूरदास का एक भजन, ‘प्रभु जी मेरे अवगुण चित न धरो..’ गाना शुरू किया। वेश्या ने जो भजन गाया, उसके भाव थे कि एक पारस पत्थर तो लोहे के हर टुकड़े को अपने स्पर्श से सोना बनाता है फिर चाहे वह लोहे का टुकड़ा पूजा घर में रखा हो या फिर कसाई के दरवाजे पर पड़ा हो। और अगर वह पारस ऐसा नहीं करता तो असली नहीं है। स्वामी विवेकानंद ने वह भजन सुना और उस जगह पहुंच गए जहां वेश्या भजन गा रही थी। उन्होंने देखा कि वेश्या कि आंखों से झरझर आंसू थे। उस दिन उन्होंने पहली बार वेश्या को देखा था, लेकिन उनके मन में उसके लिए न कोई आकर्षण था और न ही विकर्षण। वास्तव में उन्हें तब पहली बार यह अनुभव हुआ था कि वे पूर्ण रूप से संन्यासी बन चुके हैं। इस घटना का उल्लेख उन्होंने स्वयं किया है।

जीवन के सच की एक और घटना। एक बार खेतड़ी नरेश ने स्वामी विवेकानंद को अपने यहाँ भोजन पर बुलाया। उन्हें खिचड़ी बहुत पसंद थी इस लिए उन्हें गरम-गरम खिचड़ी परोसी गयी। भूख से परेशान स्वामी जी ने बिना देर किये तुरंत थाली के बीच में ही हाथ डाल दिया। खिचड़ी अभी बहुत गरम थी इस वजह से स्वामी जी कि उंगलिया जल गयी। मौके की नजाकत देखकर राजा ने स्वामी जी से कहा, ‘गर्म खिचड़ी को बीच से न खाकर हमेशा किनारे से ही खाना चाहिए। ‘जब स्वामी जी का भोजन हो गया तो चलते वक्त उन्होंने राजा से कहा ,‘राजन आज तो हमे खिचड़ी से भी ज्ञान प्राप्त हो गया है कि कोई भी काम बीच से न शुरू करके एक छोर से ही करना चाहिए।’

स्वामी जी को डर से छुटकारा बनारस में मिला। वहां स्वामी जी प्रसिध्द दुर्गा मंदिर के पास से जा रहे थे। इस मंदिर के आसपास बंदरों का जमावड़ा रहता है। तभी वहाँ मौजूद बहुत सारे बंदरों ने उन्हें घेर लिया। वे उनके नज़दीक आने लगे और डराने लगे। स्वामी जी भयभीत हो वहाँ से दौड़कर भागने लगे, पर बन्दर तो मानो पीछे ही पड़ गए। वे उन्हें और दौडाने लगे। पास खड़ा एक वृद्ध सन्यासी ये सब देख रहा था। उसने स्वामी जी को रोका और बोला, “रुको ! उनका सामना करो!” स्वामी जी तुरन्त पलटे और बंदरों के तरफ बढ़ने लगे, ऐसा करते ही सभी बन्दर भाग गए। इस घटना से स्वामी जी को एक गंभीर सीख मिली और कई सालों बाद उन्होंने एक संबोधन में कहा भी – “यदि तुम कभी किसी चीज से भयभीत हो तो उससे भागो मत , पलटो और सामना करो।”

स्वामी विवेकानंद अमेरिका में भ्रमण कर रहे थे।एक जगह से गुजरते हुए उन्होंने पुल पर खड़े कुछ लड़कों को नदी में तैर रहे अंडे के छिलकों पर बन्दूक से निशाना लगाते देखा। किसी भी लड़के का एक भी निशाना सही नहीं लग रहा था। तब उन्होंने ने एक लड़के से बन्दूक ली और खुद निशाना लगाने लगे। उन्होंने पहला निशाना लगाया और वो बिलकुल सही लगा। फिर एक के बाद एक उन्होंने कुल 12 निशाने लगाये और सब बिलकुल सटीक लगे। ये देख लड़के दंग रह गए और उनसे पूछा, ” भला आप ये कैसे कर लेते हैं?”

स्वामी जी बोले, “तुम जो भी कर रहे हो अपना पूरा दिमाग उसी एक काम में लगाओ। अगर तुम निशाना लगा रहे हो तो तम्हारा पूरा ध्यान सिर्फ अपने लक्ष्य पर होना चाहिए। तब तुम कभी नहीं चूकोगे। अगर तुम अपना पाठ पढ़ रहे हो तो सिर्फ पाठ के बारे में सोचो। मेरे देश में बच्चों को ये करना सिखाया जाता है।”

स्वामी जी के विचार दिमाग पर हथौड़े से लगते थे। उनका कहना था कि अगर आपको तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं पर भरोसा है लेकिन खुद पर नहीं तो आपको मुक्ति नहीं मिल सकती। खुद पर भरोसा रखें। अडिग रहें। और मजबूत बनें। हमें इसकी जरूरत है। स्वामी विवेकानन्द ने जीवन के अन्तिम दिनों में शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की। और कहा ‘एक और विवेकानन्द चाहिए यह समझने के लिए कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है। उन्हें प्रणाम।

ऐसा व्यतित्व जिसने भारतवर्ष को पुनः विश्वपटल पर एक नई पहचान दिलाई। एक संयोग देखिए स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के शहर शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में 11 सितंबर (1893) के दिन ही हमारी संस्कृति, सभ्यता और धर्म के माध्यम से विश्व को शांति और भाईचारे का संदेश दिया और दूसरी तरफ 11 सितंबर (2001)  को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड टावर को उड़ाकर नफरत और आतंक का संदेश दिया।

यही फर्क है हमारी विचार धारा (Ideology) में जो कि हमें दूसरों से अलग पहचान दिलाती है। हमें गर्व है भारतीय होने पर।

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