यह है शोक स्थान, यहां मत शोर मचाना…

डॉ. अलका अग्रवाल 


 जलियांवाला बाग नरसंहार पर विशेष

आज से 101 वर्ष पूर्व 13 अप्रेल, 1919 को अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के निकट, जलियांवाला बाग में रॉलेट एक्ट का शांतिपूर्ण विरोध करने हेतु, एक सभा आयोजित की गई। बैसाखी का दिन था और कुछ दिन से जनता में अनेक कारणों से सरकार के प्रति रोष व्याप्त था। इस बाग से बाहर निकलने का केवल एक संकरा सा मार्ग था। जनरल डायर ने बिना किसी चेतावनी के निहत्थी जनता पर लगभग 10 मिनट तक गोलियां चलाईं। सैनिक तब तक गोली चलाते रहे, जब तक उनके पास गोलियां थीं। कितने ही लोग गोलियों से जान बचाने के लिए, वहीं एक कुएं में कूद गए और  उनके लिए यह मौत का कुआं बन गया, जिसे आज ‘शहीदी कुआं’ कहते हैं। आज भी यहां  बरसाई गई गोलियों के निशान देखे जा सकते हैं। यह अमानुषिक और क्रूर घटना, हमारे इतिहास का काला अध्याय है।

कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान ने जलियांवाला बाग  पर एक बहुत ही मार्मिक कविता लिखी थी, जिसकी दो पंक्ति भी आंखें नम कर देंगी:
आना प्रिय ऋतुराज,
किंतु धीरे से आना,
यह है शोक स्थान,
यहां मत शोर मचाना।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार केवल 379 व्यक्ति मारे गए, जबकि 1000 से ज्यादा व्यक्ति मरे और 1500 घायल हुए थे। डायर के इस कृत्य का उद्देश्य भारतीयों को ब्रिटिश शक्ति से आतंकित करना था, सरकार का विरोध करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को सबक सिखाना था। परंतु इस रोंगटे खड़े कर देने वाले नरसंहार की, पूरी दुनिया में घोर आलोचना हुई। सरकार से डरने के स्थान पर देश  ब्रिटिश शासन के खिलाफ उठ खड़ा हुआ। विश्व कवि रविन्द्र नाथ टैगोर ने इसके विरोध में सरकार द्वारा दी गई ‘सर’ की उपाधि लौटा दी।

देश में इस घटना की जांच की मांग होने लगी, इसलिए हंटर समिति नियुक्त की गई। भारतीय अब समझ गए थे कि यह हत्याकांड पूर्व नियोजित  था। पंजाब के सभी सैनिक औऱ असैनिक अधिकारी इसमें भागीदार थे। इस हत्याकांड के दूरगामी परिणाम हुए। हंटर कमीशन ने तो केवल डायर का डिमोशन करके, वापिस ब्रिटेन भेज दिया था, लेकिन युवा ऊधमसिंह यह सहन नहीं कर सके कि डायर जैसा हत्यारा जीवित रहे। उन्होंने 1940 में ब्रिटेन जाकर डायर की हत्या कर दी औऱ कुछ माह बाद ही हंसते- हंसते फांसी पर चढ़ गए। भगतसिंह भी इस घटना से बेहद प्रभावित हुए। महात्मा गांधी, जो ब्रिटिश न्यायप्रियता में विश्वास रखते थे,अब तक प्रथम महायुद्ध के दौरान सरकार के सहयोगी बने हुए थे। उनका  सरकार से मोहभंग हुआ और वे इसके बाद असहयोगी बन गए। इस प्रकार जलियांवाला बाग में किसी की भी शहादत व्यर्थ नहीं गई, इसने देश में सरकार के खिलाफ एकता को तो बढाया ही, असहयोग आंदोलन के लिए जमीन भी तैयार की।

(लेखक सेवानिवृत्त कालेज प्राचार्य हैं)