विश्व की प्राचीनतम कालगणना और हमारा नव संवत्सर

सुनील चतुर्वेदी 


कालातीत चिंतन तो बुद्धि के सामर्थ्य से परे की बात है क्योंकि काल के नियंता तो महाकाल शिव हैं। अतः काल विद्या के गुरु भी महाकाल शिव ही हुए। महाकाल के अनादि और अनंत स्वरूप में अनेक राष्ट्र और संस्कृतियां उदय हुई और अस्त भी। पर कोई बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। यह कोई बात हमारी संस्कृति और हमारे जीवन मूल्य हैं। सब राष्ट्रों का जन्म और पालन-पोषण उनकी संस्कृति और परंपरा में ही होता है। प्रत्येक प्राचीन राष्ट्र की परंपरा का प्रारंभ सृष्टि की कथा से ही होता है। भारतीय परंपरा एक ऐसी वैशिष्ट्य पूर्ण ऐतिहासिक श्रृंखला है जो भूत से वर्तमान को बांधे हुए हैं। भारतीय संस्कृति के विद्वान डा.रामदास गौड ने 1995 में लिखित अपने ग्रंथ ‘हिंदुत्व’ में भारतीय परंपरा की प्राचीनता के संदर्भ में लिखा है कि भारत की परंपरा इतनी प्राचीन बताई जाती है कि यदि उस काल से लेकर आज तक का इतिहास वर्तमान होता और उसे अत्यंत संक्षेप में लिखा जाता और सौ -सौ बरस के लिए एक एक पृष्ठ लिखा जाता तो एक करोड़ 96 लाख 86 हजार 431 पृष्ठ होते हैं। वस्तुतः इतनी लंबी परंपरा का उस तरह का इतिहास  होना ही असंभव है जिस तरह का इतिहास ईसवी और हिजरी के परंपरा विहीन राष्ट्रों की कल्पना में है। भारतीय परंपरा की सृष्टि का वर्णन सबसे निराला है। यहां के चतुर्वणीय समाज द्वारा जितने भी धार्मिक क्रियाकलाप संपन्न किए जाते हैं, उनमें संकल्प करने का विधान है। संकल्प करवाने में संवत,अयन, ऋतु, मास, तिथि, वार तथा नक्षत्र का उच्चारण होता है।

भारतीय कालगणना अत्यंत प्राचीन एवं वैज्ञानिक
भारतीय कालगणना कल्प मन्वंतर युगादि के पश्चात संवत्सर से प्रारंभ होती है। सतयुग में ब्रम्हा संवत, त्रेता में वामन संवत, द्वापर में युधिष्ठिर संवत और कलयुग में विक्रम संवत प्रचलन में हैं अथवा रहे हैं। तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो भारतीय कालगणना वैदेशिक काल गणना की तुलना में अत्यंत प्राचीन है। भारतीय कालगणना का पुण्य प्रवाह जहां कल्पाब्द संवत 1अरब, 97 करोड़, 29 लाख, 85 हजार, 123 वर्ष, सृष्टि संवत एक अरब 95 करोड़ 58 लाख 85 हजार 123 वर्ष, श्रीराम संवत एक करोड़ 25 लाख 69 हजार123 वर्ष, कृष्ण संवत 5247 वर्ष तथा विक्रम संवत 2078 वर्ष से प्रवाहित हैं। वहीं वैदेशिक संवतों में चीनी संवत 9 करोड़ 60 लाख 2 हजार 319 वर्ष, पारसी संवत 1 लाख 87 हजार 988 वर्ष, मिस्त्र संवत 27 हजार 675वर्ष, तुर्की संवत 7 हजार 628 वर्ष, यूनानी 3 हजार 594 वर्ष, ईसवी 2021 वर्ष तथा हिजरी संवत मात्र 1442 वर्ष पुराना है। भारतीय कालगणना की सबसे छोटी इकाई कलयुग की है जो कि 4 लाख 32 हजार वर्ष का है। वर्तमान काल  श्वेत वाराह कल्प के वैवस्वत मन्वंतर का 28 वां कलयुग है। इसकी भी यदि आयु निकाली जाए तो वह भी आज 5123 वर्ष होती है। यह तुलनात्मक स्थिति सिद्ध करती है कि भारतीय कालगणना अत्यंत प्राचीन एवं वैज्ञानिक है।

इतना ही नहीं भारतीय साहित्य में संवत प्रारंभ करने की भी शास्त्रीय विधि का उल्लेख मिलता है।अपने नाम से संवत्सर चलाने वाले सम्राट को संवत्सर प्रारंभ करने से पूर्व अपने राज्य के प्रत्येक जन को ऋण मुक्त करना पड़ता है। भारत में महापुरुषों के नाम से महावीर, बौद्ध, नानक संवत आदि उनके अनुयायियों ने श्रद्धा से प्रारंभ किए होंगे, किंतु सर्वमान्य संवत विक्रम संवत प्रारंभ होने से पूर्व महाराजा विक्रमादित्य ने देश के प्रत्येक व्यक्ति का संपूर्ण ऋण स्वयं चुका कर समाज को उऋण किया था। कहने की आवश्यकता नहीं है कि भारत भूमि के अतिरिक्त किसी अन्य सम्राट ने समाज को उऋण करने का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया हो।

महीनों के नाम भी वैदेशिक संवतों की भांति
विक्रम संवत के महीनों के नाम भी वैदेशिक संवतों की भांति देवता, मनुष्य अथवा संख्यावाची कृत्रिम नाम नहीं है, बल्कि आकाशीय नक्षत्रों के उदय अस्त से संबंध रखते हैं। सूर्य व चंद्रमा की कलाओं के अद्भुत संगम के साथ- साथ नक्षत्रों से भी इनकी गहरी साम्यता है। जिस मास में जो नक्षत्र आकाश में प्राय: रात्रि से अंत तक दिखाई देता है, उस मास का नामकरण उसी के आधार पर किया गया है। जैसे चित्रा नक्षत्र से चैत्र मास, विशाखा से बैसाख, जेष्ठा से जेष्ठ, मघा से माघ आदि। संवत्सर मास की तिथियां भी सूर्य चंद्र की गति पर आश्रित हैं तिथियों का क्षरण एवं वृद्धि इस गति चक्र से प्रभावित होती है। यही कारण है कि प्रत्येक 19 वर्ष बाद संवत्सर की तिथि और  सौर वर्ष का दिनांक एक हो जाते हैं। इस प्रकार न केवल ऐतिहासिक प्राचीनता की दृष्टि से बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी संवत्सर सर्वाधिक वैज्ञानिक काल गणना है। दूसरी ओर इस  ईश्वी सन में फरवरी 28 दिन का, 7 महीने 31 दिन के तथा 4 महीने 30 दिन के हैं जिनका न तो कोई ऐतिहासिक आधार है ना वैज्ञानिक। क्योंकि ईश्वी सन का प्रारंभ ही ईसा के जन्म के 3 वर्ष बाद माना जाता है।

भारतीय साहित्य के अनुसार सृष्टि का प्रारंभ चैत्र शुक्ला प्रतिपदा से होता है। परंपरा के साक्ष्य से हम जानते हैं कि सृष्टि के रचयिता ने इसी दिन ब्रह्मांड की रचना की थी। भारतीय काल गणना के अधिकांश संवत्सर इसी दिन से प्रारंभ होते हैं। खगोलीय दृष्टि से देखें तो भी यह दो खगोलीय पिंडों की कलाओं में पूर्ण सामंजस्य रखते हुए ऐसी ऋतु से प्रारंभ होता है जब सूर्य भूमध्य रेखा पर होता है और पृथ्वी पर वातावरण सर्वथा सम होता है। जबकि ईश्वी सन का प्रारंभ 1 जनवरी से होता है। उस समय पृथ्वी के दो गोलार्द्धौं में सर्वथा विपरीत ऋतु रहती हैं।

अंधानुकरण में विलुप्त होती गई भारतीयता
इस प्रकार पौराणिक, ऐतिहासिक, खगोलीय, गणितीय तथा वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत श्रेष्ठ और प्रामाणिक वर्ष होते हुए भी पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण में हम अपने स्वत्व को भूलते जा रहे हैं। ढाई सौ वर्ष तक अंग्रेजों की गुलामी तथा स्वतंत्रता पश्चात अंग्रेजी परस्त लोगों के सत्तासीन होने के कारण शिक्षा व्यवस्था में भारतीयता विलुप्त होती गई। परिणाम स्वरूप आत्म परिचय हीनता से उत्पन्न आत्मदीनता ने शिक्षित वर्ग को पाश्चात्य करण में इस कदर जकड़ लिया कि हमें हमारी प्राचीन परंपरा और संस्कृति पर विश्वास ही नहीं रहा। आज न केवल महानगरों में बल्कि छोटे-छोटे शहरों से लेकर सुदूर ग्रामीण अंचल तक नववर्ष मनाने का अश्लील और फूहड़ प्रदर्शन 1 जनवरी को होने लगा है। फादर्स डे, मदर्स डे, वैलेंटाइन डे विस्तार पाने लगे हैं। हमारे दैनिक जीवन में हिंदी तिथियों और मासों का महत्व घट गया है। हम जन्मदिन, विवाह एवं प्रतिष्ठान की वर्षगांठ यहां तक कि अपने पूर्वजों की पुण्यतिथि भी ईस्वी सन् के दिनांक से मनाने लगे हैं। ऐसा ना हो कि कालांतर में दशहरा 10 अक्टूबर और दीपावली 30 अक्टूबर को मनाने लग जाएं।

आइए! ब्रह्म मुहूर्त में शंखनाद से स्वागत करें अपने नववर्ष का…
विगत कुछ वर्षों से राष्ट्रवादी विचार की गतिमान प्रवाहशीलता ने इस विदेशी मानसिकता से निकलने का सार्थक प्रयास किया है। आइए अपना नववर्ष ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि रचना के प्रथम दिन, भगवान राम के राज्याभिषेक का दिन, शक्ति उपासना का प्रथम दिन, आर्य समाज की स्थापना का दिन, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, संत झूलेलाल, गुरु अंगद देव और पूज्य डॉक्टर हेडगेवार का जन्मदिन, रवि की फसलों के आगमन के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार दिन तथा महान तेजस्वी सम्राट विक्रमादित्य द्वारा शकों पर विजय का स्मरण दिलाने वाले इस शुभ दिन चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को मना कर गौरवान्वित हों।  इस पावन नव वर्ष का मध्य रात्रि के अश्लील फूहड़पन के स्थान पर भगवान भास्कर के उदय होने पर ब्रह्म मुहूर्त में शंखनाद से स्वागत हो। वसुधैव कुटुंबकम की भावना से विशेष पूजा अर्चना हो, तोरण द्वार एवं बंदनवार लगाएं तथा पारस्परिक बधाइयों से नए वर्ष का अभिनंदन करें।
और अंत में:
बने राष्ट्र गौरव के रक्षक,
बढें निरंतर सत्य पथ पर,
द्वेष क्लेश नैराश्य मिटाकर
गाएं समरसता के स्वर।
सरल हृदय से प्रेषित सबको
नए वर्ष का अभिनंदन,
अक्षुण्ण आपकी कीर्ति रहे
मंगलमय हो नव संवत्सरं।


(लेखक राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय बछामदी (नदबई) भरतपुर, में प्रधानाचार्य हैं)