रिसते घाव
डॉ. सत्यदेव आजाद, मथुरा
मेरी सारी वांछित देह
लांछनों की
दहकती सलाखों से
दागी हुई है
कई बार नहाया हूँ
सामाजिक क्रांति की
रक्त सरिता में
फिर भी
उन कीट युक्त घावों को
शांति न मिली
ये रिसते घाव
भीतरी उज्जवलता को
निष्णात न कर दें
मैं यही चौकसी करते हुए
खड़ा हूँ
भीड़ भरे बाज़ार में
बन कर
प्रतिमा पत्थर की
धवल बर्फ बरसता है
शिशिर में
धूल की परतों ने
ढक लिया है
मेरे अनावरण को
जब मानव क्रूर बनता है
प्रकृति का हृदय
पिघलता है
दया से।
(लेखक आकाशवाणी के सेवानिवृत्त वरिष्ठ उद्घोषक और नारी चेतना और बालबोध मासिक पत्रिका ‘वामांगी’ के प्रधान संपादक हैं।)
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