सम्पूर्ण ज्ञान और शक्ति हमारे भीतर, उसे पहचानो : स्वामी विवेकानंद

जयंती   |   राष्ट्रीय युवा दिवस 

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 डॉ. अशोक गुप्ता


शिक्षा सदैव ही चिन्तन मनन एवं लेखन का केन्द्रीय बिन्दु रही है। पुरातन काल से अद्यतन नई शिक्षा नीति- 2020 तक समय-समय पर नई- नई अवधारणाओं के साथ नए-नए  प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में किए जाते रहे हैं। तथापि समस्त विचारों के केन्द्र में मनुष्य निर्माण एवं चरित्र निर्माण पर जोर रहा है। ऋषि मुनियों, दार्शनिकों, विचारकों के साथ-साथ शासन द्वारा स्थापित आयोगों समितियों  ने अपने-अपने चिन्तन से शिक्षा को दिशा देने के लिए अपने विचार एवं अनुशंसाएं प्रस्तुत की हैं। स्वामी विवेकानन्द उच्च कोटि के चिन्तक एवं दार्शनिक थे जिन्होंने भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शन का सुन्दर समन्वय कर वर्तमान युग के सन्दर्भ में युगानुकुल मार्गदर्शन दे दिया।

 स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के सन्दर्भ में कहा कि मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यम्त करना ही शिक्षा है | उन्होंने कहा कि ‘ज्ञान मनुष्य में स्वभाव सिद्ध है। कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब अंदर ही है । हम जो कहते हैं कि मनुष्य ‘जानता है यथार्थ में कहना चाहिए कि वह ‘अनावृत्त या ‘ प्रकट’ करता है। हम कहते हैं कि न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का आविष्कार किया तो क्या वह आविष्कार कहीं एक कोने में न्यूटन की राह देखते बैठा है ? नहीं? वह उसके मन में ही था जब समय आया तो उसने उसे जान लिया या ढ़ूंढ़ निकाला। सेब के गिरने से न्यूटन को कुछ सूझ पड़ा और उसने अपने मन का अध्ययन किया (उसने अपने में विचार की पुरानी कड़ियों को फिर से व्यवस्थित किया और उनमें एक नई कड़ी को देखा तो पाया जिसे हम गुरुत्वाकर्षण का नियम कहते हैं। वह न तो सेब में था और न पृथ्वी के केन्द्रस्थ किसी वस्तु में |

सभी ज्ञान और शक्तियां भीतर हैं । स्वामी जी ने कहा है कि बालक स्वयं अपने को सिखाता है। तुम उसे शिक्षा देने में उसी प्रकार असमर्थ हो जैसे कि किसी पौधे को बढ़ाने में । तुम केवल बाधाओं को हटा सकते हैं। ज्ञान अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट हो जाएगा। ज़मीन को कुछ  कुछ पोली बना दो ताकि उसमें से उगना आसान हो जाए। उसके चारों ओर मेड बना दो और देखते रहो उसे कोई नष्ट न कर दे । उस बीज से उगते हुए पौधे की शारीरिक बनावट के लिए मिट्टी, पानी और समुचित वायु का प्रबन्ध कर सकते हो और बस यहीं तुम्हारा काम समाप्त हो जाता है | वह अपनी प्रकृति के अनुसार जो भी आवश्यक होगा ले लेगा। बस ऐसा ही बालक की शिक्षा के बारे में है । उसे केवल प्रबोधन की आवश्यकता है । ठोक -पीटकर शिक्षित बनाने की प्रणाली का अन्त कर देना चाहिए | बालकों के सदा पीछे लगकर कहते रहना कि तुम कुछ सीख नहीं सकते तो यथार्थ में ने वैसे ही बन जाएंगे | भाषा और साहित्य काव्य और कला हर एक विषय में उनके विचार और कार्य की भूलें बताने की अपेक्षा उन्हें वह मार्ग दिखाना चाहिए जिससे वे  इन्हें और भी सुचारू रूप से कर सके।

विद्यार्थी को उसकी प्रवृत्ति के अनुसार ही मार्ग दिखाना चाहिए | जो जहाँ पर है उसे वहीं से आगे बढ़ाओ | स्वाधीनता ही विकास की पहली शर्त है। शिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं है, जो तुम्हारे  मस्तिष्क में ठूंस दिया गया है और जो आत्मसात हुए बिना वहाँ आजन्म पड़ा रहकर गड़बड़ मचाया करता है | यदि तुम केवल पॉँच परखे हुए विचार आत्मसात कर उनके अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर लेते हो तो तुम एक पूरे ग्रंथालय को कण्ठस्थ करने वाले की अपेक्षा अधिक शिक्षित हो।

यदि शिक्षा का अर्थ जानकारी ही होता, तब तो पुस्तकालय सबसे बड़े सन्त और विश्वकोष महान ऋषि बन जाते | स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के उद्देश्य के बारे में पूछा है कि तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है ? विदेशी भाषा में दूसरे के विचारों को रटकर अपने मास्तिस्क में उन्हें ठूंसकर कुछ पदवियां प्राप्त करना ही क्या शिक्षा है ? वह शिक्षा जो जनसमुदाय को जीवत- संग्राम के उपयुक्त नहीं बनाती, जो साहस पैदा नहीं करती , क्या उसे शिक्षा कह सकते हैं। हमें आवश्यकता इस बात की है कि हम विदेशी अधिकार से स्वतंत्र रहकर अपने निजी ज्ञान भण्डार की विभिन्न शाखाओं का और उसके साथ ही अंग्रेजी आषा और पाश्चात्य विज्ञान का अध्ययन करें । हमें यांत्रिक और ऐसी सभी शिक्षाओं की आवश्यकता है जिनसे उद्योग-धन्धों की वृद्धि जिससे मनुष्य नौकरी के लिए मारा- मारा फिरने के बदले अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त कमाई कर सके और आपातकाल के लिए संचय भी कर सके।

स्वामी जी ने ज्ञान प्राप्ति के लिए एकाग्रता पर जोर देते हुए कहा है कि एकाग्रता की शक्ति जितनी अधिक होगी ज्ञान की प्राप्ति उतनी ही अधिक होगी। एकबार फिर से अपने में श्रद्धा का भाव जगाना होगा। हमें आत्मविश्वास को जगाना होगा | अगर तुम सोचो कि मुझमें शक्ति है तो सचमुच तुम में शक्ति आ जाएगी । सतत् अच्छे कार्य करते रहो और सदा पवित्र विचार मन में सोचा करो | हम स्वयं अपने भाग्य का निर्माण करते हैं | हमारी  गलतियों का कारण अज्ञान है। हमें अपने विकास की गति को बढ़ाना है शिक्षक और शिष्य के लिए आवश्यक नियम बताते हुए उन्होंने कहा कि शिष्य के लिए आवश्यकता है शुद्धता, साथ ही सच्ची पिपासा और लगन के साथ परिश्रम की | शिक्षक शब्द अम्बर से दूर रहे। निष्पाप हो। साथ ही स्वार्थ सिद्धि के हेतु शिक्षा न दे | स्वामी जी ने शिक्षा में सनातन तत्वों के साथ महापुरूषों के जीवन को शामिल करने पर जोर दिया है । युवकों को शारीरिक रूप से सशस्त होने पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि गीता के अभ्यास की अपेक्षा फुटबाल के खेलने के द्वारा तुम स्वर्ग के निकट पहुँच जाओगे । तुम्हारी कलाई और भुजाएँ और अधिक मज़बूत होने पर तुम गीता को आधिक अच्छी तरह समझोगे ! उन्होंने कठिनाइयाँ दूर करने हेतु लगातार अभ्यास पर बल दिया। हमें कुछ समम तक दूसरों की ओर ध्यान देने की अपेक्षा अपने साधनों की पूर्णता पर ध्यान देना चाहिए ताकि साध्य अपने आप प्राप्त हो जाए ।

स्वामी जी ने जनजन को शिक्षित बनाने के साथ – साथ स्त्री शिक्षा पर भी काफी बल दिमा। उन्होंने लौकिक शिक्षा, त्याग की शिक्षा के साथ आत्मरक्षा की शिक्षा देने पर ज़ोर दिया। जन साधारण को उनकी निजी भाषा में शिक्षा देने के साथ- साथ घर-घर शिक्षा के प्रचार की शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया। स्वामी के इन विचारों के आधार पर हम शिक्षा जगत में महान् क्रांति के द्वारा न केवल भारत को बल्कि सम्पूर्ण विशव को  शिखर पर स्थापित कर सकते हैं।


(लेखक राजकीय वाणिज्य महाविद्यानम कोटा में लेखा एवं व्यावसायिक व सांख्यकी विभाग के सह आचार्य हैं।)





 

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