उनके अनुसार, शिक्षा केवल जानकारी का पर्याय नहीं है, जो मस्तिष्क में ठूंस दी जाती है। यदि शिक्षा का अर्थ केवल जानकारी ही होता तो पुस्तकालय विश्व के सबसे बड़े गुरु होते। विदेशी भाषा में दूसरों के विचारों को रटकर अपने मस्तिष्क में भरकर डिग्री प्राप्त कर लेना ही शिक्षा नहीं है।वे मन के संयम की शिक्षा को सबसे जरूरी मानते हैं ,क्योंकि तब अपने मन को इच्छा अनुसार एकाग्र किया जा सकता है। शिक्षा का लक्ष्य व्यक्ति को इस योग्य बनाना है कि वह अपने हाथ पैर,नाक,कान,आंख का उचित उपयोग करने के लिए अपनी बुद्धि का सही प्रयोग कर सके ।
भारतीयों की दुर्दशा का कारण स्वामी विवेकानंद के अनुसार, उनकी शक्तिहीनता है। अतः वे ‘लोहे की मांसपेशियां और फौलाद के स्नायु ‘ वाले युवक बनाना चाहते थे। वे कहते थे ,”तुम गीता पढ़ने के बजाए फुटबॉल खेल कर स्वर्ग के अधिक निकट पहुंच सकते हो”। इस प्रकार ऐसे समय में जबकि भारत में राजनीतिक उदासीनता और निराशा के बादलों ने भारतीयों को अकर्मण्य बना दिया था ,उन्होंने भारत के सुषुप्त अभिमान को पुनः जागृत किया। वे एक ऐसे राष्ट्रभक्त सन्यासी के रूप में सामने आए, जिन्होंने युवा वर्ग को’ उत्तिष्ठत, जाग्रत , प्राप्य वरान्निबोधत ‘ का मंत्र दिया।( उठो ,जागो और वह प्राप्त करो जिसे तुम प्राप्त करने के योग्य हो) युवा वर्ग को भयमुक्त करके , शक्तिशाली , निडर ,साहसी बनाकर देश के गौरव को आगे बढ़ाने के लिए स्वामी विवेकानंद हमेशा याद किए जाएंगे।यही कारण है कि उनके जन्मदिवस को हम’ राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाते हैं।
(लेखक कॉलेज की सेवानिवृत्त प्राचार्य हैं)