छत्रपति शिवाजी का राज्यारोहण दिवस
आज यानी ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी पर आज दुनियाभर में छत्रपति शिवाजी का राज्यारोहण दिवस मनाया जा रहा है। सन् 1674 में ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को ही छत्रपति शिवाजी महाराज (Chhatrapati Shivaji Maharaj) का राज्याभिषेक हुआ था,जिसे आनंदनाम संवत् का नाम दिया गया। महाराष्ट्र में आज के दिन को ‘शिवा राज्यारोहण उत्सव’ के रूप में भी मनाया जाता है। शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक महाराष्ट्र में पांच हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित रायगढ़ किले में एक भव्य समारोह में हुआ था। इसके बाद ही वह एक प्रखर हिंदू सम्राट के रूप में स्थापित हुए।
छत्रपति शिवाजी महाराज भारत के एक महान योद्धा और कुशल प्रशासक थे। छत्रपति शिवाजी जैसे आदर्श शासक और संगठक विश्व के इतिहास में दूसरे नहीं मिलते हैं। उन्होंने एक राजा के तौर पर निष्पक्ष शासन किया और एक सेनापति के नाते हर सैनिक का ऐसा मनोबल बढ़ाया कि पलक झपकते ही दुश्मन ढेर हो जाते थे। इतिहास पर नजर डालें तो पता चलेगा कि शिवाजी महाराज ने महज एक किशोर के रूप में हिंदवी स्वराज स्थापित करने की प्रतिज्ञा ली थी न कि अपना राज्य स्थापित करने की। उन्होंने इस बात की भी घोषणा की थी कि यह ईश्वर की इच्छा है, इसमें सफलता निश्चित है। उन्होंने अपनी शाही मोहर में यह बात अंकित की थी कि शाहजी के पुत्र शिवाजी की यह शुभ राजमुद्रा शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस के चंद्रमा की भांति विकसित होगी और समस्त संसार इसका मंगलगान करेगा।
हिंदू साम्राज्य दिवस के अवसर पर उनके जीवन कुछ प्रसंग यहां दिए जा रहे हैं। ये प्रसंग वे हैं जिन्होंने शिवाजी को छत्रपति बनाया। कुशल रणनीतिकार और कौशल संगठक व प्रशासक बने। इन प्रसंगों का स्मरण कर शिवाजी के व्यक्तित्व और उनके समय की शासन व्यवस्था और वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था का सिंहावलोकन करने का यह मौका भी है।
आगरा में शिवाजी के सम्मान में सड़क पर आ गई थी जनता
राज्याभिषेक से पहले शिवाजी महाराज मुग़ल शासक औरंगजेब से मिलने आगरा गए थे। इस दौरान एक अनोखा नजारा देखने को मिला था। तब महान शासक शिवाजी के लिए जाति, भाषा, पांथिक प्रथाओं की परवाह न करते हुए जनता उनके सम्मान के लिए रास्ते पर आ गई थी। तब अमानवीय मुस्लिम शासन के बीच पिस रही हिंदू जनता को शिवाजी महाराज में एक नई आशा की किरण दिखाई पड़ी थी। जो सच साबित हुआ और शिवाजी महाराज ने हिंदू साम्राज्य की स्थापना की। शिवाजी महाराज ने अनेक उतार-चढ़ावों की बीच कभी भी मर्यादा का हनन नहीं किया। पूरी निष्पक्षता के साथ उन्होंने राज किया। इन्हीं गुणों के कारण वे आज भी समूचे भारत और भारतवासियों के दिल में बसे हैं। सच कहें तो आधुनिक भारत के निर्माण में उनका अभूतपूर्व योगदान है। वे हमारे नायक हैं।
कुशल संगठक और न्याय प्रिय की पहचान
भारत की पवित्र माटी में जन्मे छत्रपति शिवाजी महाराज साहस, राजकौशल और कुशल प्रशासक की सनातन प्रतिमूर्ति थे। उन जैसा योजनाकार और संगठनकर्ता कहीं नहीं दिखते हैं। शिवाजी महाराज की संगठन कुशलता का उदाहरण आज भी दिया जाता है। उस समय मराठा अलग-अलग रहते थे, अलग-अलग ही लड़ाई भी लड़ते थे। शिवाजी महाराज ने अनुभव किया कि मराठों में जोश और स्वदेशाभिमान तो है, पर एकता नहीं होने के कारण वे सफल नहीं हो पा रहे हैं। इसलिए शिवाजी ने उन्हें एक-एक करके संगठित किया। उसके बाद तो मराठों की विजय पताका फहरने लगी।
शिवाजी की राजकीय व्यवस्था और सेना खड़ी करने की क्षमता अद्भुत थी। उनकी न्याय व्यवस्था तो ऐसी थी कि दुश्मन भी इस मामले में उनकी तारीफ करते थे। छत्रपति शिवाजी चाहते थे कि मराठों के साम्राज्य का विस्तार हो और उनका अलग से एक-एक राज्य हो। अपने इसी सपने को साकार करने के लिए उन्होंने 28 वर्ष की आयु में अपनी एक अलग सेना एकत्रित करनी शुरू कर दी और अपनी योग्यता के बल पर मराठों को संगठित किया तथा एक अलग साम्राज्य की स्थापना की। उन्होंने जहाजी बेड़ा बनाकर एक मजबूत नौसेना की स्थापना की। इसलिए उन्हें भारतीय नौसेना का पिता कहा जाता है।
एक वृद्धा की सीख ने बदलवा दी शिवाजी की रणनीति
छत्रपति शिवाजी की एक विशेषता थी की वे किसे न किसी सीखने की कोशिश करते थे, चाहे वह छोटा होआ या बड़ा। उनसे जुड़ा एक प्रसंग बताता है कि वे अपने आलोचकों से भी सीख लेते थे। यह उन दिनों की बात है जब शिवाजी मुगलों के विरुद्ध छापामार युद्ध लड़ रहे थे। एक रात वे थके-हारे एक बुढ़िया की झोपड़ी में जा पहुंचे। उनके चेहरे को देखकर बुढ़िया बोली, ‘सिपाही, तेरी सूरत शिवाजी जैसी लगती है। तू भी उसी की तरह मूर्ख है।’ शिवाजी ने कहा, ‘शिवाजी की मूर्खता के साथ-साथ मेरी भी कोई मूर्खता बताएं।’ बुढ़िया ने उत्तर दिया, ‘वह दूर किनारों पर बसे छोटे-मोटे किलों को आसानी से जीतते हुए शक्ति बढ़ाने की बजाए बड़े किलों पर धावा बोल देता है और फिर हार जाता है।’
बुढ़िया की इस बात से शिवाजी को अपनी रणनीति की विफलता का कारण समझ में आ गया। उन्होंने बुढ़िया से सीख प्राप्त कर पहले छोटे-छोटे लक्ष्य बनाए और उन्हें ही प्राप्त करने के लिए मेहनत करने लगे। छोटे किलों को जीतने में ही उन्होंने ध्यान लगाया और परिणाम जीत के रूप में आने लगा। इससे उनके साथ-साथ उनके सैनिकों का भी मनोबल बढ़ा। इस मनोबल की बदौलत ही वे बड़े किलों को जीत पाए। ज्यों-ज्यों जीत मिलती गई उनकी शक्ति बढ़ती गई।
जब शिवाजी ने भिक्षा में दे दिया राजपाट तो गुरू रामदास ने उन्हें ऐसे पढ़ाया पाठ
समर्थ गुरु रामदास छत्रपति शिवाजी के गुरू थे। एक दिन उन्होंने दरवाजे के बाहर से शिवाजी से भिक्षा की मांग की। शिवाजी ने कहा भिक्षा मांग कर आपने हमें लज्जित किया। गुरु रामदास ने कहा, ‘आज मैं गुरू के रूप में नहीं, बल्कि भिक्षुक के नाते भिक्षा मांगने यहां आया हूं।’ शिवाजी ने एक कागज पर कुछ लिखकर गुरू के कमंडल में डाल दिया। उसमें लिखा था- सारा राज्य गुरुदेव को अर्पित है।
गुरू रामदास ने कागज फाड़ दिया और कहा, ‘मैं तुम्हारे अंदर का अहंकार निकाल नहीं पाया हूं। तुम राजा नहीं, एक सेवक हो। जो चीज तुम्हारी है ही नहीं उसे तुम मुझे दे रहे हो।’ गुरुदेव ने आगे कहा, ‘वत्स! यह राज-पाट, धन-दौलत सब जनता की मेहनत का फल है। इस पर सबसे पहले उनका अधिकार है। तुम एक समर्थवान सेवक हो। एक सेवक को दूसरे की चीज को दान देना राजधर्म नहीं है।’ शिवाजी गुरुदेव की भावना को समझ गए और उनसे क्षमा मांग कर बोले, गुरुदेव! अब कभी भूल नहीं होगी।
‘आप पालनकर्ता हैं तो इसका अभिमान क्यों’
छत्रपति शिवाजी को उनके गुरू नीति और ज्ञान की बातें समझाते रहते थे। एक बार शिवाजी ने गौरव से भर कर गुरू रामदास को कहा- मैं लोगों का रक्षक और प्रजापालक हूं। गुरू रामदास ने अनुमान लगा लिया कि शायद शिवाजी को राजा होने का अभिमान हो गया है।
रामदास ने शिवाजी को एक बड़ा-सा पत्थर दिखाकर कहा- वत्स! इस पत्थर को तोड़ कर तो देखो। शिवाजी ने पत्थर को तोड़ा तो देखा कि पत्थर के बीच में एक जीवित मेंढ़क है। गुरू जी ने कहा कि अब बताओ कि इस पत्थर के बीच में मेंढ़क को कौन हवा, पानी और खुराक दे रहा है? यह सुनकर शिवाजी गुरू के आगे नतमस्तक हो गए। फिर रामदास जी ने कहा कि हमारे भीतर पालनकर्ता का अभिमान नहीं आना चाहिए।
हर विचारधारा और मत-पंथ का सम्मान करते थे शिवाजी
वामपंथी इतिहासकारों ने भारत की संस्कृति और इतिहास को खूब तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया। उन्होंने शिवाजी महाराज के बारे में अनेक गलत तथ्य प्रस्तुत कर उनको कट्टर हिंदू साबित करने की कोशिश की। जबकि शिवाजी हर विचारधारा और मत-पंथ का सम्मान करते थे। उन्होंने अपने शासन काल में सभी मत-पंथों को पूर्ण स्वतंत्रता दे रखी थी, लेकिन उन्होंने जबरन कन्वर्जन का विरोध किया था।
इतिहास में कई ऐसे प्रसंग आते हैं जिनसे पता चलता है कि मस्जिदों और मकबरों की सुरक्षा के लिए भी उन्होंने फरमान जारी किया था। वे सूफी परंपरा का बहुत सम्मान करते थे। महान संत बाबा शरीफुद्दीन की दरगाह पर वे प्राय: प्रार्थना करने जाया करते थे। इतिहासकार कफी खां और एक फ्रांसीसी पर्यटक बर्नियर ने उनकी धार्मिक नीतियों की प्रशंसा करते हुए इसका जिक्र भी किया है।
आदिलशाह जब शिवाजी से सहम गया
शिवाजी के बढ़ते प्रताप से आतंकित बीजापुर का शासक आदिलशाह जब शिवाजी को बंदी न बना सका तो उसने शिवाजी के पिता शाहजी को गिरफ्तार कर लिया। इसकी सूचना मिलते ही शिवाजी आग बबूला हो गए। उन्होंने नीति और साहस का सहारा लेकर छापामारी कर जल्द ही अपने पिता को इस कैद से आजाद कराया। तब बीजापुर के शासक ने शिवाजी को पकड़ने का आदेश देकर अपने मक्कार सेनापति अफजल खां को भेजा। उसने भाईचारे और सुलह का झूठा नाटक रचकर शिवाजी को अपनी बांहों के घेरे में लेकर मारना चाहा, पर समझदार शिवाजी के हाथ में छिपे बघनख का शिकार होकर वह स्वयं मारा गया। उसकी सेना अपने सेनापति को मरा पाकर वहां से भाग गई। उनकी वीरता के कारण ही उन्हें एक आदर्श एवं महान राष्ट्रपुरुष के रूप में स्वीकारा जाता है।
एक दिन सूर्यास्त के बाद शिवाजी ने द्वारपाल से द्वार खोलने के लिए कहा। द्वारपाल ने साफ-साफ कहा कि सूर्यास्त के बाद द्वार नहीं खुलेगा। इस कारण शिवाजी को बाहर ही रात गुजारनी पड़ी। सुबह होते ही उन्होंने द्वारपाल को दरबार में बुलाया और द्वार न खोलने का कारण पूछा। द्वारपाल ने जवाब दिया, ‘महाराज जब आप ही अपने आदेश का पालन नहीं करेंगे तो प्रजा क्या करेगी?’ द्वारपाल की कर्तव्यनिष्ठा और निर्भीकता से शिवाजी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने उसे अंगरक्षक बना लिया।
संक्षेप में जानें छत्रपति शिवाजी का जीवनवृत्त
छत्रपति शिवाजी महाराज भारत के एक महान योद्धा और कुशल प्रशासक थे। उन्होंने आजीवन मुगलों से संघर्ष किया और अपनी कुशल युद्ध नीति से उनके छक्के छुड़ा दिए थे। शिवाजी का जन्म 19 फरवरी,1630 में महाराष्ट्र के शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। कई लोग मानते हैं कि शिवाजी का जन्म भगवान शिव के नाम पर रखा गया, लेकिन ऐसा नहीं था। उनका नाम एक देवी शिवई के नाम पर रखा गया था। दरअसल शिवाजी की मां ने देवी शिवई की पुत्र प्राप्ति के लिए पूजा की और उन्हीं पर शिवाजी का नाम रखा गया। उनके पिता शाहजी राजे भोसले बीजापुर के दरबार में उच्चाधिकारी थे।
शिवाजी का लालन-पालन उनकी माताजी जीजाबाई जी की देखरेख में हुआ। उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण और प्रशासन की समझ दादाजी कोंडदेव जी से मिली थी। 1674 में उन्होंने पश्चिम भारत में मराठा साम्राज्य की नींव रखी। शिवाजी को हिंदू शासक के रूप में देखा जाता है,लेकिन वह सभी धर्मों का सम्मान करते थे। उनकी सेना में मुस्लिमों को भी महत्वपूर्ण पद मिलता था। छत्रपति शिवाजी महाराज का 3 अप्रेल,1680 को रायगढ़ में निधन हो गया।
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