अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च पर विशेष
रचना शर्मा, एडवोकेट और एक्सपर्ट, महिला उत्पीड़न मामले
महिलाओं के साथ रोजमर्रा की गाली गलौच, ताने, मारपीट, उस पर तरह-तरह की पाबन्दी (जैसे बाहर आने-जाने, नौकरी करने) को घरेलू हिंसा कहा जाता है। कई बार यह ह्त्या का रूप भी ले लेती है। सदियों से यह सब होने के बावजूद आखिरकार पहली बार 1960 में, फिर 1983 में और 2005 में इस पर कानून बनाए गए। कानून में घरेलू हिंसा की शुरुआत दहेज के सन्दर्भ में हुयी। जब दहेज से जुडी हिंसा की घटनाएं ज्यादा सामने आने लगी तब इस के लिए ठोस कानूनी उपाय किए जाने की जरुरत महसूस की गई।
1961 में दहेज प्रतिषेध अधिनियम लाया गया। इस कानून के आने के बावजूद भी नवविवाहिताओं के साथ हिंसा और मृत्यु के मामले लगातार सामने आते रहे। इस कारण 1983 में भारतीय दंड संहिता में संशोधन के जरिये कुछ नए अपराध घोषित किये गए। जिसमें महिलाओं को ससुराल में मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना, खुदकुशी करने पर मजबूर करना और ह्त्या को दंडनीय अपराध ठहराया गया। लेकिन ये दोनों कानून सिर्फ शादी शुदा महिला के साथ ससुराल में होने वाली हिंसा पर केन्द्रित थे। इनमे महिला के अधिकार, राहत और अन्य सहायता जैसे चिकित्सा, आवास, परामर्श आदि की बात नहीं की गयी थी। इसके लिए 2005 में एक सिविल कानून लाया गया, जिसे घरेलू हिंसा कानून के नाम से जाना जाता है। घरेलू हिंसा से जुड़े ये तीन कानून इस अध्याय में बताये गए हैं।
दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम, 1961
इस कानून के अनुसार दहेज़ से तात्पर्य किसी संपत्ति (जैसे घर, जमीन, जेवर, गाडी, रुपया- पैसा आदि) से है | यह विवाह के समय, विवाह के पहले या विवाह के बाद किसी भी समय दिया गया/ माँगा गया हो सकता है। दहेज में मेहर सम्मलित नहीं है। इस कानून के तहत ये सभी अपराध हैं –
- दहेज की मांग करना
- दहेज का लेनदेन करना
- दहेज के लिए वादा या समझौता करना
- विवाह के लिए ऐसा कोई भी विज्ञापन देना जिसमे सम्पत्ति का ब्यौरा या प्रस्ताव दिया गया हो
इन अपराधों के लिए 6 माह से 5 साल तक की सजा और जुर्माना का प्रावधान है। इस क़ानून में सिर्फ दहेज के लेन देन के लिए सजा है। दहेज के कारण की गयी प्रताड़ना या हिंसा के लिए सजा नहीं दी गयी है।
भारतीय दंड संहिता (1983–84 के संशोधन)
दहेज या अन्य कारणों से होने वाली हिंसा को अपराध मानते हुए भारतीय दंड संहिता में कुछ प्रावधान दिए गए हैं –
शारीरिक एवं मानसिक हिंसा – ( धारा 498 अ )
अगर किसी विवाहित महिला के पति या पति के रिश्तेदार उस महिला को
a) ऐसी शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना जिस से महिला की जान को खतरा पैदा हो जाये या वह खुद अपनी जान लेने पर मजबूर हो जाये या
b) उस पर दहेज लाने का दबाव डालें
इन दोनों स्तिथियों को क्रूरता माना जाएगा। जिसमें तीन साल तक की कैद और जुर्माना किया जा सकता है।
दहेज हत्या – (धारा 304 ब इसे भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113 बी के साथ पढ़ा जायेगा)
अगर किसी भी महिला की मृत्यु विवाह के 7 वर्षों के अन्दर अस्वाभाविक कारणों से हो जाये तो उस मृत्यु के कारण की जाँच अनिवार्य है। इस जाँच में अगर पाया जाये कि महिला के पति या पति के परिवार वालों ने उसे दहेज या अन्य किसी करण से प्रताड़ित किया था तो वह दहेज़ हत्या कहलायेगी। इस अपराध के लिए कम से कम 7 वर्ष और अधिकतम उम्र कैद की सजा हो सकती है। परिवार के जिन लोगों ने उस महिला को परेशान करने में सहयोग दिया था वे सभी ह्त्या के अपराध में दोषी माने जायेंगे।
आत्महत्या के लिए मजबूर करना – (धारा 306 इसे भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113 ए के साथ पढ़ा जायेगा)
अगर कोई विवाहित महिला शादी के 7 सालों में आत्महत्या कर ले तो इसकी जाँच अनिवार्य है। यह देखा जाएगा कि उसके पति या पति के परिवार ने उसे दहेज या अन्य कारण से प्रताड़ित किया था या नहीं। सबूत पाए जाने पर यह माना जायेगा कि उन्होंने उसे अपनी जान लेने पर मजबूर कर दिया। इस अपराध के लिए 10 साल तक की कैद और जुर्माना हो सकता है
घरेलू हिंसा से महिलाओं को संरक्षण अधिनियम 2005
किसी भी महिला के साथ घर या घरेलू रिश्तों में प्रताड़ना की रोकथाम और राहत देने के लिए यह कानून बना है। इस क़ानून की मुख्य बात है कि यह एक दीवानी या सिविल कानून है जिस का मकसद पीड़ित महिला को तुरंत सुरक्षा और राहत देना। इसमें दोषी को सजा नहीं मिल सकती है। सजा केवल तब मिल सकती है जब वह न्यायिक (जुडिशयल) आदेशों की पालना नहीं करे।
दूसरी मुख्य बात यह है यह कि यह कानून परिवार और साझे घर में हर पीड़ित महिला या लडकी को हिंसा से मुक्त होकर रहने का अधिकार देता है। इसका मतलब पत्नी के अलावा माँ ,बहन, बेटी, प्रेमिका या कोई भी महिला जो घरेलू रिश्ते में है या रही है कानूनन मदद की हकदार है।
हिंसा के प्रकार
शारीरिक हिंसा – ऐसा कोई भी व्यवहार जिससे शरीर को चोट या नुकसान पहुंचे जैसे मारना – पीटना, तेजधार हथियार या किसी वस्तु से वार करना, धक्का देना, हाथ मरोड़ना, काटना, दवा न देना , इलाज न करवाना, आदि
मानसिक या भावनात्मक हिंसा – ऐसी बातें या व्यवहार करना जिससे महिला अपमानित महसूस करे जैसे :- गाली देना, बदसूरत कहना, ताने कसना, बात न करना, घर से बाहर न जाने देना, बच्चों से दूर करना, दहेज़ ना लाने या कम लाने पर प्रताड़ित करना आदि
आर्थिक हिंसा – पैसे या संपत्ति से जुडी हिंसा जैसे:- खर्चा न देना, कमाई के पैसे छीन लेना, बिना सहमति स्त्रीधन बेचना या किसी को दे देना, घर से निकाल देना, रोजगार न करने देना, घर के किसी हिस्से में जाने पर रोक लगाना, घर का किराया न देना आदि
यौनिक हिंसा – महिला की सहमति के बिना या जबरन उसके साथ किसी भी प्रकार का यौन व्यहवार करना
शिकायत कहाँ की जा सकती है?
मजिस्ट्रेट, पुलिस, संरक्षण अधिकारी या सेवा प्रदाता के पास शिकायत की जा सकती है
दो नए ढांचे
पीडिता की मदद के लिए क़ानून में दो खास व्यवस्थाएं की गयी हैं ताकि महिला को क़ानून की जानकारी और जरूरी सुविधाएं मिल सकें
संरक्षण अधिकारी – राज्य सरकार द्वारा निम्न कार्य के लिए संरक्षण अधिकारियों को नियुक्त किया गया है –
- घरेलू घटना रिपोर्ट तैयार करना और मजिस्ट्रेट को देना
- पीड़ित महिला के लिए कानूनी मदद सुनिश्चित करना
- जरूरत होने पर पीड़ित महिला के लिए सुरक्षित आश्रय का प्रबंध करना
- यदि पीड़ित महिला अपने घर में ही रहना चाहे तो उसकी सुरक्षा सुनिश्चित करना
- यदि पीड़ित महिला को शारीरिक चोट पहुँची हो तो उसकी डाक्टरी जाँच कराना
- एकतरफा अंतरिम आदेश से पहले होम विजिट कर मामले की जाँच पड़ताल करना
- अदालत के आदेश का पालन करवाने में मदद करना
सेवा प्रदाता – वे संस्थाएं जो सोसाइटी/कंपनी एक्ट के तहत और राज्य सरकार द्वारा पंजीकृत हैं उन्हें सेवा प्रदाता नियुक्त किया जा सकता है। ये संस्थाएं महिला मुद्दों और अधिकारों पर काम करने वाली संस्थाएं हैं। सेवा प्रदाता की जिम्मेदारी है कि वे घरेलू घटना रिपोर्ट, मेडिकल और जरूरत पड़ने पर महिला को सुरक्षित आश्रय उपलब्ध करवाने में मदद करें।
अदालत से किस प्रकार की राहत मिल सकती है
सुरक्षा का आदेश यानि पाबंदी यह आदेश महिला या उसकी संपत्ति को नुकसान से बचाने के लिए है। जो लोग ऐसा कर रहे हैं या कर सकते हैं अदालत उन पर रोक लगा सकती है ताकि वे महिला या उसकी सम्पत्ति के संपर्क में ना आयें। (धारा 18)
निवास का आदेश महिला जिस घर में रहती आयी है वहां बिना किसी भय के आगे भी रह सके
यह घर पैतृक, पिता, ससुर, पति द्वारा खरीदा या फिर किराए का हो सकता है। (धारा 17 &19 )
यदि माहिला साझे घर में खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करती है तो संरक्षण अधिकारी किसी आश्रय गृह में उसके रहने का इंतजाम कर सकता है। आश्रय गृह के संचालक का कर्तव्य है कि वह महिला को आश्रय गृह में जगह उपलब्ध कराये (धारा 6)
खर्चे का आदेश महिला और उसके बच्चों के रहने, खाने-पीने, पढ़ाई करने और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए (धारा 20 )
अभिरक्षा/संरक्षण का आदेश जिससे महिला को अस्थायी तौर पर बच्चे की देखभाल व सुरक्षा की जिम्मेदारी मिल सके (धारा 21)
मुआवजा का आदेश हिंसा की वजह से हुए शारीरिक और मानसिक नुकसान की भरपाई के लिए (धारा 22)
सुनवाई की प्रक्रिया
सामान्य तौर पर दोनों पक्षों को सुनवाई का मौका देने के बाद राहत का आदेश दिया जाता है लेकिन दो स्तिथियों में तुरंत या एकतरफा आदेश दिया जा सकता है
यदि न्यायालय को यह लगे कि महिला को तुरंत किसी राहत की जरूरत है
यदि अदालत को पहली नज़र में (प्रथम दृष्टया) लगे कि महिला पर हिंसा हुयी है या हिंसा होने की सम्भावना बनी हुयी है (धारा 23)
इस कानून में इस बात का भी ख़याल रखा गया है कि मामले का जल्द निपटारा हो | आवेदन करने के तीन दिन के अन्दर सुनवाई की पहली तारीख तय होगी | अदालत कोशिश करेगी कि 60 दिन में मामले का निपटारा हो जाए | हालांकि व्यावहारिक रूप में अदालत बहुत कम मामलों में ऐसा कर पाई है फिर भी यह कानून पीडिता के लिए जल्द न्याय की संभावनाएं खोलता है
(लेखिका ‘विशाखा’ संगठन से जुड़ी हुई हैं और महिला उत्पीड़न के मामलों की एक्सपर्ट हैं और करीब बीस साल से इन मामलों को देख रही हैं। पीएलडी (पार्टनर्स फॉर लॉ इन डेवलपमेंट) और विशाखा के जरिए महिला और बाल विकास राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, महिला विकास निगम बिहार, जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी, अदिति महाविद्यालय, आईआईटी दिल्ली जैसे शैक्षणिक संस्थानों और सुप्रीम कोर्ट के साथ पीओएसएच पर प्रशिक्षण दिया है। भारत ने विभिन्न संगठनों और संस्थानों में प्रशिक्षण भी आयोजित किया है। इसके साथ ही केएमवीएस गुजरात, महिला समाख्या जम्मू के साथ यौन हिंसा के खिलाफ 3 कानूनों पर प्रशिक्षण दिया।)