अपना पराया
डॉ. शिखा अग्रवाल
मेहनतकश को है सज़ा यहां,
नाकारा इज्जत पाते हैं,
खुद का हक है सबको प्यारा,
दूजे का हक झुठलाते हैं।
इंसा के चेहरे हैं ढेरों,
कब, कौन मुखौटा धर बैठे,
मिश्री सा मीठा रूप धरे,
कब विष पूरित फुफकार भरे।
कैसे कोई पहचान करे,
है अपना कौन पराया है,
विश्वास किए को हैं छलते,
जीवन दुश्वार बनाया है।
ये कैसा न्याय विधान यहां
सच को बेबस लाचार करें,
सब मिल कर उसको ही घेरें,
पूरी ताकत से वार करें।
कब तक ये खेल यूं ही होंगे,
कब तक सिसकेगी मानवता,
कब नीतिमार्ग पर चल कर के,
वंचित पाएगा हक अपना।
ये प्रश्न सभी को मौन करे,
पर उत्तर तो देना होगा,
दरिया के ठहरे जल को भी
तो साफ स्वच्छ होना होगा।
(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, सुजानगढ़ (चूरू) में सह आचार्य हैं)
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