आज की लक्ष्मीबाई…

हास्य 

प्रातः काल जो धधक उठी थी,
क्रोध भरी चिंगारी थी।
मत पूछो वो कौन थी यारो,
मेरे घर की नारी थी।

भरी चाय की प्याली थी,
सिंक में देकर मारी थी।
दुर्गा थी रणचंदी थी,
तलवार कोई दोधारी थी।
मत पूछो वो कौन थी यारो,
मेरे घर की नारी थी।

खड़ी हुई थी तनी हुई थी,
ज्वाला बनकर सुलग रही थी।
कोमल थी तन्वंगी थी,
फिर सब पर भारी थी।
मत पूछो वो कौन थी यारो,
मेरे घर की नारी थी।

चमक रही थी,
भभक रही थी।
मेरे मन को भेद रही थी,
तीखी एक कटारी
मत पूछो वो कौन थी यारो,
मेरे घर की नारी थी।

क्रोध गरल से भरी हुई थी,
फूं फूं कर फुंकारी रही थी,
गृह मंडल में प्रकट हुई जो,
अष्ट भुजी अवतारी थी।
मत पूछो वो कौन थी यारो,
मेरे घर की नारी थी।
(लेखिका राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय सीही सैक्टर 7 फरीदाबाद, हरियाणा में  संस्कृत की प्रवक्ता हैं)

अपनी कब चली, पता ही नहीं चला…

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