अपनी कब चली, पता ही नहीं चला…

सफर 

कैसे कटा
21 से 60 तक का
यह सफ़र,
पता ही नहीं चला।
क्या पाया, क्या खोया,
क्यों खोया,
पता ही नहीं चला !

बीता बचपन,
गई जवानी
कब आया बुढ़ापा,
पता ही नहीं चला।
कल बेटे थे,
कब ससुर हो गये,
पता ही नहीं चला।

कब पापा से
नानु बन गये,
पता ही नहीं चला।
कोई कहता सठिया गये,
कोई कहता छा गये,
क्या सच है,
पता ही नहीं चला।

पहले माँ बाप की चली,
फिर बीवी की चली,
फिर चली बच्चों की,
अपनी कब चली,
पता ही नहीं चला।
बीवी कहती
अब तो समझ जाओ,
क्या समझूँ,
क्या न समझूँ,
न जाने क्यों,
पता ही नहीं चला।

दिल कहता जवान हूँ मैं,
उम्र कहती है नादान हूँ मैं,
इस चक्कर में कब
घुटने घिस गये,
पता ही नहीं चला
झड़ गये बाल,
लटक गये गाल,
लग गया चश्मा,
कब बदली यह सूरत
पता ही नहीं चला

समय बदला,
मैं बदला
बदल गई
मित्र-मंडली भी
कितने छूट गये,
कितने रह गये मित्र,
पता ही नहीं चला
कल तक अठखेलियाँ
करते थे मित्रों के साथ,
कब सीनियर सिटिज़न
की लाइन में आ गये,
पता ही नहीं चला