अब फुरसत से ही डरते हैं…

यादें 

डॉ. शिखा अग्रवाल 


जब प्यारा बचपन बीता था,
तब खुश थे अब तो बड़े हुए,
मन की करने का जज्बा था,
अब रोक-टोक से मुक्त हुए।।

 फिर जीवन के रेले मेले थे,
दिन-रात इसी में लगे रहे ,
अपने बच्चों के बचपन की,
मासूम हंसी ना देख सके।।

अब बच्चे बैठे दूर शहर,
अपने घर की है डोर लिए,
इस शहर में पसरा सन्नाटा,
रह गए अकेले बस बूढ़े।।

कहां गया जीवन सारा,
ये सोच सभी दिन कटते हैं,
तब फुरसत को ही तरसे थे,
अब फुरसत से ही डरते हैं।।

रह-रहकर यादें बचपन की,
दिल को जब तब सहलाती हैं,
वे नरम मुलायम थपकी सी,
मन को झंकृत कर जाती हैं।।

(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, सुजानगढ़ (चूरू) में सह आचार्य हैं)
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