खालसा पंथ की प्रासंगिकता

प्रकाश वर्ष | गुरुगोविंद सिंह जयंती

[DISPLAY_ULTIMATE_SOCIAL_ICONS]

गुरचरण सिंह गिल


श्री गुरूगोविन्द सिंह जी महाराज ने सदियों से विदेशी आक्रान्ताओं  द्वारा दलित, आत्मसम्मान खो रहे हिन्दू समाज में स्वधर्म के लिए आस्था एवं राष्ट्रगौरव के लिए आत्मोत्सर्ग की भावना तथा अन्याय व शोषण के विरूद्ध सशक्त होकर संघर्ष करने का उत्साह भरा था। हिन्दू राष्ट्र चिन्तन को नई दिशा दी तथा उस समय धर्म के नाम पर व्याप्त अंधविश्वास तथा सामाजिक आत्म सम्मोहन के नाम पर व्याप्त जातिगत विद्वेष व ऊंच नीच को मिटाकर, एक नई जीवन सोच देकर भारत को जागृत किया तथा क्षात्र तेज व ब्रह्मतेज, भक्ति व शक्ति का समन्वय कर खालसा पंथ की स्थापना राष्ट्र धर्म व समाज की रक्षा के लिए की।

श्रीगुरू गोविन्द सिंह द्वारा स्थापित खालसा पंथ द्वारा जीवन व समय की विपरीत परिस्थितियों में, जंगलों में भूखे प्यासे रहकर, घोड़ों पर अपना जीवन जीते हुए. इतिहास की भीषणतम उत्पीड़न सहकर भी, श्री गुरूगोविन्द सिंह द्वारा स्थापित जीवन मूल्यों का जीवन के अंतिम क्षण तक निर्वाह किया।

श्रीगुरुगोविन्द सिंह जी ने अपनी आत्मकथा ‘विचित्र नाटक’  में अपना उद्देश्य बताते हुए, यह स्पष्ट किया: 

धर्म चलावनु, सन्त उबारनु, 
दुष्ट समै को मूल उपारनु।






विषय का आगे और विस्तार करते हुए अपनी कृति ‘उग्रदन्ति’ में आपने फरमाया:

करहू हुम्म अपना, सबै दुष्ट धाऊँ।
तुरक हिन्द का सकल झगरा मिटाऊं।।
अगम सूर वीरे उठहि सिंघ जोधा।
पकड़ तुरक गन कउ करै वो निरोधा।
सकल जगत मों खालसा पंथ गाजै।
जगै धर्म हिन्दुकतुरक दुन्द भाजे।
हमन् वैरियन कउ पकड़ घात कीजै।
तमै दास गोविन्द का मन पतीजै।।






इस उक्ति में जो विलक्षण व अलग बात दिखती है वह यह है कि अपने उद्देश्य की पूर्ति का माध्यम उन्होंने ‘अगम सूर वीरे उठहि सिंध जोधा’  को बनाना चाहा है। इससे पूर्व भी अनेकानेक महाबली हुए, जिन्होंने दुष्टों का संहार किया होगा। ईश्वर के अवतार भी दुष्टों के नाश के लिए हुए होंगे। पर इस बार विलक्षण लीला होने यह जा रही थी कि दुष्टों का नाश करने वाले समाज में से खड़े हो रहे थे।



 

अन्याय से बचना है तो युद्ध की मानसिकता रखो
श्री गुरू गोविन्द सिंह जी ने हमें युद्ध का दर्शन दिया और आम समाज को यह आव्हान किया कि यदि अन्याय अत्याचार से बचना है तो सदैव युद्ध की मानसिकता रखो। यानि अन्याय, अत्याचर व दुष्टों से संघर्ष के लिए सदैव तैयार रहो। खालसा की सृजना के समय आपने फरमाया:

धन जीयो, तिनको जग में, मुख ते हरि चित में युद्ध बिचारै।
देह अनित न नित रहै, जसु नावि चढ़े भव सागर तारै।।

श्री गुरू गोविन्द सिंह जी ने कृष्णावतार में ‘खड़ग सिंह’ नाम से पात्र की रचना की:
खरग सकति सिव लात दई, तिह हत जीत अति,
बहु सुन्दरता रमा दई, तिन विमल अमल्ल मति।

गरमा सिद्ध गनेश, श्रंग रिखी सिंघनाम दीय,
करत अधिक घमसान, इहै घनश्याम हेत कीय।
इह विधि प्रकाश भूपति कीयो।





अर्थात, हे बलराम । खड़ग सिंह को खड़ग शक्ति भगवान शिव ने दी जिनके हाथ में अति विजय का वरदान है : सौन्दर्य देवी रमा ने दिया जिनकी विमल मति मल को दूर भगाने वाली है। गरिमा पूर्ण सिद्धी विघ्नहर्ता गणेश ने दी। सिंहनाद श्रंग ऋषि ने दिया और घमासान युद्ध करने का कौशल घनश्याम अर्थात मैंने दिया है। इस विधि से भूपति खड़ग  सिंह को प्रकट किया है।
श्री गुरू गोविन्द सिंह जी ने खड़ग सिंह पात्र की जो रचना की वह खालसा पंथ की तस्वीर थी। गुरू जी केवल खालसा को शौर्यवान ही नहीं बनाना चाहते थे बल्कि उसे ज्ञान में भी परिपक्व करना चाहते थे। इसीलिए तो उन्होंने फरमाया:

धीरज धाम बनाये इहि तनि, 
बुधि सिऊ दीपक जियों उजियारै।
गियान की बढ़नि मनहुं हाथ लै, 
कातरता कुतवार बुहारे।





यानी, इतना अदम्य शौर्य होते हुए भी यह तन (मन) इतना धैर्यपूर्ण हो जैसे कि वह धीरज का घर हो। बुद्धि के दीपक से उस घर में उजाला करें तथा ज्ञान की झाडू लेकर इस घर में घुसी दुविधा, कायरता को झाड़ कर बाहर फैंक दे। यानि एक मानसिक रूप से प्रबुद्ध, ज्ञानवान, दुविधा व कायरता रहित धीर गंभीर, शौर्यवान पुरुष खालसा हो।

वर्तमान परिस्थितियों में भी दिशाहीन . दुविधा युक्त, स्वार्थपूर्ण, वातावरण में समाज व राष्ट्र के उत्थान के लिए क्या ऐसे नागरिकों की आवश्यकता नहीं है। आज उग्रवादी बेकसूर, कमजोर लोगों की हत्या कर अपनी कुत्सित आकांक्षाओं के प्रकटीकरण का माध्यम बना रहे हैं। विमान अपहरण कर चन्द लोगों द्वारा देश के आत्मसमान को ठेस पहुंचाई जा रही है, क्या इसके लिए निर्भीक, मुत्यु की परवाह न करने वाले खालसा की आवश्यकता नहीं है।

देश धर्म की रक्षा को खड़ा हो समाज
श्री गुरू गोविन्द सिंह जी , द्वारा देश धर्म की रक्षा के लिए समाज को खड़ा होने का आह्वान किया। वहीं उससे आगे जाकर उन्होंने संदेश दिया कि यह काम समाज के किसी विशेष जाति या वर्ग का नहीं है बल्कि समस्त समाज का है। इसलिए ऐसी जातियां जिनका युद्ध से कभी संबंध नहीं रहा और जिन्हें आज भी पिछड़ी जातियां माना जा रहा है, उनमें से सिंध सजायें। पंच प्यारों में भाई दया राम खत्री, भाई धरमचन्द जाट, भाई मोहकमचन्द धोबी, भाई हिम्मत राय कुम्हार तथा भाई साहिब चन्द नाई जाति से थे। देश की आजादी के इतने वर्ष बाद भी जिन जातियों को पिछड़ा माना जा रहा है, उनको 300 वर्ष गुरूजी ने नेतृत्व का श्रेय दिया।

पंचायत परंपरा को किया प्रतिष्ठित
श्री गुरू गोविन्द सिंह जी ने पंचायत परम्परा को प्रतिष्ठित किया। स्वयं को भी आज्ञा देने का अधिकारी पंच प्यारों को दिया।  यहां तक कि पंच प्यारे, जिन्हें गुरूजी ने साजा था, उनसे अमृत पान की याचना स्वयं की। आज की राजनीति में व्यक्ति वादी पूजा, वैयक्तिक अहम के लिए इससे बड़ी प्रेरणा व प्रासंगिकता क्या हो सकती है।

छुआछूत के भेदभाव से अछूता है खालसा पंथ
आज भी हम छूआछूत व ऊंच-नीच को दूर नहीं कर पाए हैं। एक बाटे में अमृत का चूला पिलाना यानि एक बर्तन में सभी को पिलाना (खिलाने) का साहस आज भी कोई कहां कर सकता है लेकिन गुरूजी ने 300 साल पहले ऐसा कर दिखाया। यानि उनके द्वारा सृजित खालसा पंथ जाति पांति ऊंच नीच छुआछूत के भेदभाव से अछूता था।

पहले कार्य विभाजन के कारण जो भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था थी उसने जन्म से वर्ण का का रूप धारण कर समाज को विभाजन का आधार बनाया। खालसा जब प्रातः जगकर स्नान कर गुरवाणी का पाठ करता है, गुरूद्वारे जाकर सति संगति करता है तो वह सच्चा ब्राह्मण होता है। देश धर्म की रक्षा  के लिए सदैव संघर्ष को तत्पर होता है तो वह सच्या क्षत्रिय होता है। जब आजीविका उपार्जन के समय दस नाखुनों से वह परिश्रम करता है तो वह सच्चा वैश्य होता है। तथा जब वह गुरुसंगत व गरीबों की सेवा करता है, जूठे बर्तन मांजता है, जूते साफ करता है तो वह सच्चा शूद्र होता है। इस प्रकार गुरू जी के खालसे का व्यक्तित्व वर्ण रहित होते हुए चारों वर्णों के सदगुणों को स्वयं में समाहित किए हुए है। आज जो कार्यों की प्रकृति है उसमें कोई विभाजन वर्णानुसार करना संभव भी नहीं है, इसलिए खालसा का मॉडल हमारी प्राचीन सामाजिक व्यवस्था के अच्छे पक्षों को अपने में समाहित किए हुए आज और भी अधिक प्रासंगिक हो गया है।

पंच कंकार समाज के  उत्तरोत्तर विकास की देते हैं प्रेरणा
खालसे के पंच कंकारों की भी आज भी उतनी ही प्रासंगिकता है। कोई भी संस्कार व्यक्ति को बुरे काम से रोकने में सहायक होता है।
कंघा जहां स्वच्छता का साधन व प्रतीक है। आत्म विश्लेषण कर समाज में उत्तरोतर विकास के लिए मृत केशों (कालातीत परम्पराओं, रिवाजों व विचारों) को अलग करने तथा सदैव जागरूक समाज के नाते मन्थन मंत्र व विश्लेषण करने की प्रेरणा देता है।
केश जहां प्रतिकूल मौसम में हमारे शरीर के नाजुक अव्यव्यों की रक्षा करते हैं। वहीं हमें प्रकृति से जुड़ने की प्रेरणा देते हैं। आज सारा विश्व पर्यावरण के प्रति चिन्तित है।  प्रकृति से जुड़ने से ही इसका समाधान संभव है।
कड़ा यह हमें सदकर्मों के लिए व्रत का स्मरण कराता है। जब भी हाथ गलत कार्य को बढ़ेगा कड़ा रोकर कहेगा ‘ओ! गुरूसिखा ! देख अपना कौल याद कर !’

‘कछहरा’ -यह आत्मसंयम व ब्रह्मचर्य का प्रतीक है। आज भी भौतिकवादी दौड में जहां कामनाएं असीमित हैं व साधन सीमित हैं  तथा असीमित साधन भोग कर भी संतुष्टि नहीं पीड़ा, हताशा मिलती है वहां आत्म संयम अति प्रांसगिक है।

‘कृपान’– यह कृपा की आन है । यानि कृपा से प्राप्त शक्ति का उपयोग सत्कर्मों व धर्म की रक्षा के लिए ही हो। आज यदि अपना धर्म, संस्कृति व जीवन मूल्य बचाकर रखना चाहते हो तो शक्ति की आवश्यकता है पर शक्ति का दुरुपयोग किसी गरीब, कमजोर व सतपुरुष को सताने में न हो। आज शक्ति का उपयोग कहां हो रहा है ? यदि विचार करें तो कृपाण के पीछे के उपदेश से हमें सही दिशा मिल सकती है।

इस प्रकार खालसा किन्ही विशेष परिस्थितियों में सृजित कोई वर्ग विशेष नहीं बल्कि समय की धारा के साथ एक स्वस्थ, उन्नत समाज की रचना की रचना का अधार है तथा आज भी उतना प्रासंगिक है।



(लेखक राष्ट्रीय सिख संगत के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)





 

प्रतिक्रिया देने के लिए ईमेल करें  : ok@naihawa.com

 


SHARE THIS TOPIC WITH YOUR FREINDS