इस एक कदम से एक और पायदान नीचे उतर गई राजस्थान में उच्च शिक्षा | गहरे कुएं में डाली व्यवस्था और टूट गए शिक्षकों के सपने

Higher Education in Rajasthan

डॉ. नारायण लाल गुप्ता


राजस्थान शिक्षा विभाग (महाविद्यालय शाखा) का नियम 27 अंततः विलोपित कर दिया गया है इस नियम में महाविद्यालय शिक्षा के शिक्षक (प्राचार्य/ संयुक्त निदेशक) के निदेशक/आयुक्त पद पर पदोन्नति की व्यवस्था थी। अब इस नियम के विलोपित कर देने से इनको निदेशक/आयुक्त पद पर पदोन्नति का मौका हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया गया है। यानी राजस्थान की उच्च शिक्षा में ब्यूरेक्रेट्स के हावी होने की पुख्ता व्यवस्था हो गई है।

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हालांकि पिछले वर्षों में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी को ही निदेशक अथवा आयुक्त लगाया जाता रहा है लेकिन नियमों में व्यवस्था होने के कारण इस पद पर वरिष्ठतम शिक्षक को ही लगाए जाने की मांग एवं दबाव संगठन द्वारा निरंतर बना रहा। पूर्व में ब्यूरोक्रेसी द्वारा नियमों में परिवर्तन के प्रयास किए गए, यहां तक कि पिछली सरकार में भी ब्यूरोक्रेसी द्वारा इसका प्रस्ताव बनाकर नियमों में परिवर्तन का प्रयास किया गया पर रुक्टा (राष्ट्रीय) की सजगता और विरोध के कारण यह कुप्रयास अपनी परिणिति तक नहीं पहुंच सका।

दुर्भाग्य से इस बार ब्यूरोक्रेसी के मंसूबे सफल हो गए। जय-जयकार में जुटे गुट की मौन सहमति के बिना यह संभव नहीं था। शिक्षक की निरंतर कम होती गरिमा की गाथा में यह परिवर्तन एक काले अध्याय के रूप में जुड़ गया है।

ये है काला आदेश जिससे टूट गए शिक्षकों के सपने

…इतना सहज हमारा  शिक्षक ही हो सकता है!
कल मुझे एक शिक्षक साथी ने कहा – ‘सर क्या फर्क पड़ता है, पिछले कई सालों से आईएएस ही तो लगा रखा है, अब विधिवत लग जाएगा, इतना ही तो है।’ 

…इतना सहज हमारा  शिक्षक ही हो सकता है!

क्या यही बात कोई ब्यूरोक्रेट कह सकता है …कि क्या फर्क पड़ता है,  नियम कुछ भी हो, लगना तो हममें से ही है; परिवर्तन की क्या जरूरत है ?  

पर नहीं; उन्हें मौका मिलते ही व्यवस्था पक्की करनी है !!

वस्तुतः नियमों, प्रावधानों और संकल्पों का बड़ा महत्व होता है। बरसों से कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा भारत के पास नहीं है, लेकिन संवैधानिक व्यवस्था के नियमों और संसदीय संकल्प के अनुसार वह भारत का एक अभिन्न अंग है। विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों और द्विपक्षीय वार्ताओं में इस आधार पर दबाव और प्रयास की निरंतरता रहती है, नक्शे में से स्थायी रूप से दिखाया जाता है कि हम इसे छोड़ने वाले नहीं हैं।

सरल मन से तो यह भी कहा जा सकता है क्या फर्क पड़ता है, इतने सालों से यह हिस्सा तो हमारे पास है ही नहीं! 

शासन, प्रशासन और न्याय व्यवस्था में नियम-प्रावधान बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। महाविद्यालय शिक्षा का आयुक्त नियम के अनुसार वरिष्ठ शिक्षक होना चाहिए। संगठन ने इस मांग को कभी मरने नहीं दिया। हमारी वार्ताओं में बहुधा इस विषय को जोर-शोर से उठाया गया। ब्यूरोक्रेट्स हमारी इस मांग को लेकर कभी सहज नहीं रहे;  हल नहीं निकला। पर उनकी इच्छा के अनुसार संशोधन भी संगठन ने होने नहीं दिया।

स्वतंत्रता के बाद 50 से अधिक वर्षों तक महाविद्यालय शिक्षा निदेशक/आयुक्त के पद पर शिक्षक को ही लगाया गया है। तुलना का एक प्रमुख विषय यह भी बनता है कि महाविद्यालय शिक्षा में पिछले वर्षों में जबसे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी को शिक्षक की जगह निदेशक/आयुक्त लगाया जाने लगा है, तब से राज्य की महाविद्यालय शिक्षा में गुणवत्ता, प्रबंधन और संसाधनगत स्थितियों में पहले की तुलना में कितना सकारात्मक बदलाव आया है? उच्च शिक्षा से थोड़ा भी वास्ता रखने वाला सामान्य व्यक्ति भी इसका उत्तर बता देगा कि पहले जमीन पर ठोस काम ज्यादा था; आंकड़े और दिखावा कम। अब हम पहले की तुलना में कहीं ज्यादा आंकड़े दिखा रहे हैं; पर संसाधन, गुणवत्ता, और अर्थपूर्ण अध्ययन-अध्यापन चरघातांकी रूप से क्षय हो रहे हैं।

जब भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी महाविद्यालय शिक्षा विभाग का मुखिया होते हैं तो विभाग की उन्नति में उनका योगदान क्या और कैसे होता है? वैसे तो यह प्रश्न ही अर्थहीन और अप्रासंगिक है। आयुक्त/ निदेशक के रूप में उनका काम प्रायः इतना ही होता है कि महाविद्यालय शिक्षा के संस्थान को जैसा सरकार चाहती है वैसे चलें और सरकार महाविद्यालय शिक्षा के संस्थानों को किस प्रकार चलाना चाहती है इसका ब्लूप्रिंट कहीं भी स्पष्ट रूप से रेखांकित ही कब किया गया है?

अधिकांश प्रशासनिक अधिकारियों का प्रयास इस सीमा तक ही रहता है कि उनके कार्यकाल के दौरान उच्च शिक्षा के हितधारक व्यवस्थाओं को लेकर ज्यादा शोरगुल ना करें। मानवीय, शोध या भौतिक संसाधनों की कमी या प्रोफेशनल डिग्निटी पर प्रश्न ना उठाए जाएं और आंकड़े सही समय पर उत्पन्न व प्रेषित किए जाएं। और यह भी कि राज्य सरकार के वित्त से पोषित अन्य विभाग जैसे पंचायती राज, कृषि आदि; जिनका उन्हें  पूर्व अनुभव होता है, की परंपराओं के विपरीत उच्च शिक्षा विभाग में कुछ स्वायत्त या स्वतंत्र परंपरा तो नहीं चल रही है?

हमारे संवर्ग में बड़ी संख्या ऐसे शिक्षक साथियों की है जिन्होंने प्रशासनिक सेवा के ऊपर शिक्षण को वरीयता दी। पिछले वर्षों में उन आंखों के सपने निरंतर टूटे हैं, सम्मान सुरक्षित नहीं रह गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति भले 21वीं सदी के अनुरूप शिक्षा तंत्र में बदलाव की कितनी भी बातें कर ले; पर लगता है राज्य की महाविद्यालय शिक्षा की नियति और दिशा तय कर दी गई है।

वर्तमान शासन ने एक उम्मीद बंधाई थी उनके जन घोषणा पत्र में। जन घोषणा पत्र 2018 के पृ. संख्या 11 के बिंदु संख्या 21 में वादा किया गया कि महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की अकादमिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता को सुनिश्चित किया जाएगा। पर हुआ इसके ठीक विपरीत। शासन के प्रारंभ से ही निरंतर ऐसे आदेश जारी हुए जो रही-सही अकादमिक स्वतंत्रता और स्वायत्ता को पूरी तरह समाप्त करने वाले थे- यथा महाविद्यालयों पर जिला प्रभारी लगाने की व्यवस्था, शिक्षण और शोध की जगह कोचिंग को बढ़ावा देना,  पाठ्यक्रम में कौन सा टॉपिक कब पढ़ाया जाएगा इसकी केंद्रीकृत व्यवस्था, केंद्रीकृत आंतरिक परीक्षा और उसके प्रश्न पत्र की व्यवस्था, विश्वविद्यालयों को आनंदम जैसे पाठ्यक्रम भेज कर सीधे महाविद्यालयों में लगवाने के निर्देश, संयुक्त निदेशक पद पर कनिष्ठ आरएएस अधिकारी को लगाना।

वादे के अनुसार तो काम नहीं हुआ। पर दुर्भाग्य से यथास्थिति भी नहीं रही। अकादमी स्वतंत्रता और स्वायत्ता कीबातें अब नियमों में परिवर्तन के साथ, लगता है.. गहरे कुएं में डाल दी गई है।

(लेखक अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ के राष्ट्रीय अतिरिक्त महामंत्री हैं)

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