अक्षर
डॉ. अंजीव अंजुम
मैं अक्षर हूं एक तुम्हारा, तुम मेरी मात्रा हो।
मैं कदमों सा एक बटोही, तुम जैसे यात्रा हो।।
बिन मात्रा के कोई अक्षर,
अर्थ नहीं पाता है।
पुत्र, पति और पिता नाम बस,
मात्रा से आता है।
हर मात्रा का ‘मात’ भाव तुम, इक लय,गति, गात्रा हो।
मैं अक्षर हूं एक तुम्हारा, तुम मेरी मात्रा हो।
लघु मात्रा से भार बढ़ा तुम,
भाव उदित कर जातीं।
मात्रा दीर्घ सजा अक्षर पर,
जीवन पथ महकातीं।
मुझ अक्षर का मूल्य सजाने, वाली तुम पात्रा हो।
मैं अक्षर हूं एक तुम्हारा, तुम मेरी मात्रा हो।।
मैं अक्षर हूं, अक्षय हूं,
पर तुम बिन सदा अधूरा।
गठजोड़े में बंध कर ही मैं,
हो पाता हूं पूरा।
अर्थ ढूंढता याचक मैं, तुम, अर्थ लुटाती दात्रा हो।
मैं अक्षर हूं एक तुम्हारा ,तुम मेरी मात्रा हो।।
मैं पानी सा आर पार,
तुम रंगने वाली माया।
मुझ पत्थर पर मूर्त उतरती,
पूजनीय तुम काया।
जिससे शक्ति उपार्जित होतीं, तुम वह नवरात्रा हो।
मैं अक्षर हूं एक तुम्हारा, तुम मेरी मात्रा हो।।
(लेखक प्रधानाध्यापक एवं राजस्थान ब्रजभाषा अकादमी जयपुर की पत्रिका ब्रजशतदल के सहसंपादक हैं )
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