राघव आ जाओ तुम दुबारा, आज भी याद तुम्हारी आती है | डा.रांगेय राघव जयंती

डा. रांगेय राघव जयंती पर विशेष 


मुरारी शर्मा, वैर प्रतिनिधि, नई हवा.कॉम   


उत्तरप्रदेश एवं ब्रज अंचल की यमुना नदी के किनारे आगरा की धरा पर जन्मे रांगेय राघव पर ज्ञान की देवी मां शारदा की आसीम कृपा थी, जिन्होंने दक्षिणी भारतीय परिवार के सदस्य होते हुए भी हिन्दी साहित्य में अनूठी छाप छोड़ी।
रांगेय राघव ने भरतपुर जिले के कस्बा वैर जैसे ग्रामीण अंचल में रचनात्मक साहित्य का आकार गढ़ना प्रारम्भ किया। जब देश आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था, तब इनकी सृजन-शक्ति अपने प्रकाशन का मार्ग तलाश रही थी। उन्होंने अनुभव किया कि मातृभाषा हिन्दी से देशवासियों के मन में देश के प्रति निष्ठा और स्वतंत्रता का संकल्प जगाया जा सकता है। रांगेय राघव अल्पायु में ही एक साथ उपन्यास, कहानी, निबंध, नाटक, कविता पाठ आदि के धनी हो गए। 39 साल के जीवन में 150 से अधिक पुस्तकें  लिख दी। जिन्न्हें स्वयं के जीवन के अन्तिम दिन भी याद था, जो केवल कृतियां लेखन में व्यस्त रहते, उनका अन्तिम उपन्यास आखिरी आवाज है। जिसे पढ़ कर पाठक की आंखें नम हो जाती हैं। जिनके ज्ञान का भण्डार भारत सहित अनेक देशों की प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान एवं पुस्तकालयों में मौजूद है। उन्हें लोग आज भी पढ़ना पसन्द करते हैं।

सीता राम मंदिर जिसमे डा.रांगेय राघव निवास करते थे

ताज की नगरी में हुआ जन्म
साहित्यकार रांगेय राघव का जन्म 17 जनवरी 1923 को आगरा में हुआ था। उनका परिवार मूलरूप से आन्ध्रप्रदेश के तिरूपति का था। उनके पूर्वज करीब 300 साल पहले जयपुर और फिर भरतपुर जिले के कस्बा वैर आकर बस गए।  पूर्वज वैर स्थित श्रीसीताराम मन्दिर की पूजा-पाठ करते थे। रंगाचार्य सहित अन्य पूर्वज भी बडे विद्वान रहे। पिता का नाम रंगाचार्य,माता का नाम कनकवल्ली और धर्मपत्नी का सुलोचना था। इनका मूल नाम तिरूमल्लै नंबाकम वीर राघव आचार्य था,लेकिन उन्होंने अपना साहित्यिक नाम रांगेय राघव रखा। ये गौर वर्ण,उन्नत ललाट,लम्बी नासिका,चेहरे पर मुस्कान बिखेरे हुए हिन्दी साहित्य के अनन्य उपासक थे। वे रामानुजाचार्य परम्परा के तमिल देशीय आयगर ब्राह्मण थे। प्रांगेय राघव ने 12 सितम्बर 1962 को मुम्बई में उपचार के दौरान दम तोड़ दिया। 

छह भाषाओं के थे धनी
डा.रांगेय राघव को तमिल, कनन्नड़, हिन्दी, अंग्रेजी, ब्रज, संस्कृत आदि भाषा का ज्ञान था। प्रारम्भिक शिक्षा आगरा से प्रारम्भ की। साल 1944 में सेंट जॉन कॉलेज आगरा से स्नातकोत्तर तथा साल 1949 में आगरा विश्वविद्यालय से गुरू गोरखनाथ पर शोध करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।

जानपीन सिगरेट के शौकीन
डा.रांगेय राघव शाकाहारी थे,जिन्हें सिगरेट पीने का बेहद शौक था। केवल जानपीन सिगरेट ही पीते, दूसरे कम्पनी की सिगरेट को छुआ तक नहीं। जिनकी मेज पर एक दर्जन जानपीन सिगरेट की डिब्बी हर वक्त रखी रहती थी। लेखन वाला कमरा सिगरेट की गंध और धुंए से भरा रहता था। किसी भी आगन्तुक ने आकर उनके कमरा का दरवाजा खोला,तो उसे सिगरेट का एक भभका लगता। हिन्दी साहित्य के साधक डा. राघव को सिगरेट पीना एक आवश्यकता बन गई,जो सिगरेट पिए बिना कुछ भी कर सकने में असमर्थ थे। शायद सिगरेट पीने की लत ही उनकी मृत्यु का कारण बनी।

 

तपस्वी जैसा जीवन
भरतपुर जिले के वैर स्थित दक्षिणी शैली का सीताराम का मन्दिर विश्व विख्यात है,जहां डा.राघव के पूर्वज एवं बडे भाई महन्त रहे। आबादी की कोलाहल से दूर, प्राकृतिक वातावरण,ग्रामीण सादगी और संस्कृति तथा वहां के वातावरण की अद्भुत शक्ति ने डा.राघव को साहित्य की साधना में युक्त किया। जहां मन्दिर की शाला में बिल्कुल तपस्वी जैसा जीवन व्यतीत किया। तमिल भाषी डा. राघव ने हिन्दी साहित्य की  पुजारी की तरह आराधना-अर्चना की। नारियल की जटाओं के गद्दे पर लेटे-लेटे और पैर के अंगूठे में छत पर टंगे पंखे की डोर को बांधकर हिलाते हुए वह कई घन्टे तक साहित्य की विभिन्न विधाओं और आयामों  के बारे में सोच-विचार करते थे। 

वैर में लिखा ज्ञान का भण्डार
डा. रांगेय राघव का जन्म भले ही आगरा में और प्रारम्भिक से लेकर उच्च शिक्षा भी अन्य स्थान पर ली, लेकिन बचपन से ही भरतपुर रियासत के संस्थापक महाराजा सूरजमल के चचेरे भाई राजा प्रतापसिंह के गढ गोपी महाराज की जन्मभूमि एवं सिद्व बाबा मनोहरदास की कर्म व तपोभूमि सहित लघुकाशी के नाम से जाना जाने वाला कस्बा वैर से लगाव रहा। उच्च शिक्षा प्राप्ति के बाद वैर आए,जहां उन्हें ज्ञान के भण्डार का लेखन प्रारम्भ कर अनेक प्रकार का साहित्य,कहानी,निबन्ध आदि ग्रन्थ व पुस्तकें लिख डाली।

ये पुरूस्कार किए हासिल
रांगेय राघव ने साल 1951 में हिन्दुस्तान अकादमी,साल 1954 में डालमिया,साल 1957 एवं 1959 में उत्तरप्रदेश सरकार,साल 1961 में राजस्थान साहित्य अकादमी तथा मरणोपारांत साल 1966 में महात्मा गांधी पुरूस्कार से सम्मानित हुए। इनके अलावा राजस्थान, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र आदि प्रान्त के समाजसेवी, साहित्य व कहानी के रूचिकारों एवं विभिन्न संगठनों ने सम्मानित किए। आगरा, भरतपुर, वैर की साहित्य, कहानी, लेखन,कवि आदि क्षेत्र में भारत देश में ही नहीं विश्व में पहचान कायम कराई।

राघव की पुस्तकें 
कब तक पुकारूं, पक्षी और आकाश, विषाद मठ, उबाल, राह न रुकी, बारी बरणा खोल दो, देवकी का बेटा, रत्ना की बात, भारती का सपूत, यशोधरा जीत गई, घरौंदा, लोई का ताना, लखिमा की आंखें, मेरी भव बाधा हरो,चीवर, राई और पर्वत, आखिरी आवाज, बन्दूक और बीन (उपन्यास), पंच परमेश्वर, अवसाद का छल, गूंगे, प्रवासी, घिंसटत कदम्ब, पेड़, नारी का विक्षोम, काई, समुद्र के फेन, देवदासी, कठपुतले, तबेले का धुधलका, जाति और पेशा, नई जिन्दगी के लिए, ऊंट की करवट, बांबी और मन्तर, कुत्ते की दुम और शैतान, जानवर-देवता, अधूरी मूरत (संकलित कहानी), जाबालि-गोवर्धन तीर्थ, संन्यासी ब्राह्मण, राजा की उत्पत्तियां, पुरूष और विश्व का निर्माण, मृत्यु की उत्पत्तियां, वेदव्यास, दुर्वासा, तनु, उपमन्यु आदि (अंतर्मिलन की कहानी), महायात्रा गाथा-अंधेरा रास्ता, महायात्रा गाथा रैन और चंदा के दो-दो खण्ड, जैसा तुम चाहो, हैमलेट, वेनिस का सौदागर, निष्फल प्रेम,परिवर्तन, तिल का ताड, तूफान, मैकबेथ, बारहवीं रात (भारतीय भाषा में अनुदित कृतियां), प्राचीन ब्राह्मण कहानियां, प्राचीन टयूटन कहानियां, प्रचीन प्रेम और नीति की कहानियां, संसार की प्राचीन कहानियां  आदि हैं। इनके अलावा अनेक कृतियां और भी लिखी गई।

न किसी वाद से बंधे न विधा से
रांगेय राघव का विपुल साहित्य उनकी अभूतपूर्व लेखन क्षमता को दर्शाता है,जिन्हें कृति तैयार करने में समय लगता था, लिखने में समय नहीं लगता। जिनके संदर्भ बताया जाता है कि जितने समय में कोई व्यक्ति उनकी पुस्तक पढ़ता,उतने समय में वे पुस्तक को लिख सकते थे। जिन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ की सदस्यता ग्रहण करने से इंकार कर दिया, क्योंकि उन्हें उसकी शक्ति पर भरोसा नहीं  था। साहित्य में वे न किसी से बंधे,न विधा से। ये उपन्यासकार ,कहानीकार ,निबन्धकार,  नाटककार, कवि, आलोचक थे।  

असत्य का किया विरोध
रांगेय राघव ने कभी असत्य का साथ नहीं दिया। ये सत्य के धनी भी थे। सत्य को लेकर किसी के सामने नही झुके, चाहे वह कितना भी ताकत व दंबग ही क्यों न हो। इनके जीवन में अनेक दिक्कत आई,जो उनकी लेखनी को नहीं रोक सकी, जिनकी लेखनी ने असत्य को हरा दिया और भारी संख्या में उनके पाठक एवं विचारधारक बन गए। उन्होंने अपने ऊपर मढे जा रहे मार्क्सवाद, प्रगतिवाद और यथार्थवाद आदि का विरोध किया। उन्होंने न तो प्रयोगवाद और प्रगतिवाद का आश्रय लिया और न प्रगतिवाद के चोले में अपने को यांत्रिक बनाया। केवल इतिहास को,मनुष्य की पीड़ा को,मनुष्य की उस चेतना को,जीवन को,जो अंधकार से जूझने की शक्ति रखती है,उसे ही सत्य माना।

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