दाक्षायणी से दक्षिणामूर्ति प्रिया | अनुपम, अलौकिक एवं अद्भुत प्रणय गाथा

पुस्तक समीक्षा 

डॉ. रमेश चन्द मीणा, कलाकार, समीक्षक एवं सौन्दर्यविद


डॉ. डी. डी. गोयल कृत दाक्षायणी से दक्षिणामूर्ति प्रिया शिव-सती-पार्वती की अलौकिक प्रेमगाथा का भावसमृद्ध, सरस और साहित्यिक पुनर्पाठ है, जो श्रीरामचरितमानस (बालकाण्ड) के शिव-सती प्रसंग को केंद्र में रखकर 18 सुव्यवस्थित अध्यायों में विस्तृत है। मूल कथा-तंतु गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीरामचरितमानस से अक्षरशः ग्रहण किया गया है, किन्तु लेखक ने इसके भावार्थ, भावरस विस्तार और मौलिक विवेचन द्वारा इसे सहृदय पाठक के लिए अत्यंत सहज, सुगम और रससिक्त रूप में प्रस्तुत किया है।

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पुस्तक का आरंभ मंगलाचरण से होता है और क्रमशः शिव-सती का कुंभज ऋषि के पास जाना, सती के अंतर्मन में उठते संशय, श्रीराम की परीक्षा, शिवजी द्वारा सती का परित्याग, सती का पश्चाताप, पितृगृह गमन, योगाग्नि समर्पण, पार्वती जन्म, नारदोपदेश, कठोर तपस्या, सप्तर्षि संवाद, तारकासुर वध हेतु शिव-पार्वती विवाह की कथा और षण्मुख जन्म तक की पूरी आध्यात्मिक यात्रा को अविरल धारा की भाँति बहाया गया है। प्रत्येक अध्याय में लेखक ने मानस के दोहे, चौपाइयाँ, छंद व सोरठों को उद्धृत कर उनका भाव-साम्य और गूढ़ार्थ स्पष्ट किया है, जिससे कथा का प्रवाह अखंडित एवं रोचक बना रहता है।

डॉ. गोयल, जो पेशे से वरिष्ठ चिकित्सक हैं, ने इस कृति में चिकित्सक-मन की सूक्ष्म दृष्टि और साहित्यिक हृदय की कोमलता, दोनों का सुंदर संगम प्रस्तुत किया है। उन्होंने मानस-सागर की गहराइयों में उतरकर भाव-मोती चुने हैं और उन्हें सुविचारित शब्दमाला में पिरोया है। उनके भावरस विस्तार में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—पुरुषार्थ चतुष्ट्य—का संतुलित समन्वय दृष्टिगोचर होता है। कथा केवल पौराणिक पुनर्कथन नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक और भक्ति-भावनाओं की गहन व्याख्या भी है।

पुस्तक का कलेवर विशेष आकर्षक है। इसमें 2 रंगीन चित्र, 3 फोटोग्राफ तथा डॉ. रमेश चंद मीणा द्वारा सृजित 15 विषयानुकूल रेखाचित्र सम्मिलित हैं, जो कथा की सौंदर्याभिवृद्धि के साथ उसके भावबोध को भी सहज बनाते हैं। प्रस्तुत स्वेत-श्याम रेखाचित्र, पाठक को केवल पढ़ने ही नहीं, अपितु देखने-सुनने जैसा अनुभव भी कराते हैं।

भाषा में साहित्यिक गरिमा और धार्मिक ग्रंथों की गंभीरता दोनों का संतुलन है। शैली में गद्य और पद्य का समन्वित रूप, मानस की भावभूमि के अनुरूप, एक सजीव वातावरण निर्मित करता है। व्याख्या में कहीं भी दुरूहता या कृत्रिमता नहीं आती, जिससे सामान्य पाठक भी सहजता से कथा का आनंद ले सकता है, जबकि विद्वान पाठक इसके गूढ़ार्थ में निहित आध्यात्मिक स्फुरण का आस्वादन कर सकता है।

वर्तमान समय में, जब पौराणिक ग्रंथों का अध्ययन नई पीढ़ी में कम हो रहा है, यह पुस्तक शिव-सती-पार्वती के प्रसंग को भावात्मक, सांस्कृतिक और दार्शनिक संदर्भों सहित पुनः जीवंत करती है। यह केवल भक्ति-पाठ नहीं, बल्कि आदर्श नारी-पुरुष संबंध, त्याग, तप, निष्ठा और मोक्ष के मार्ग का भी सुंदर मार्गदर्शन है।

समग्रतः दाक्षायणी से दक्षिणामूर्ति प्रिया एक अनुपम, अलौकिक और अद्भुत प्रणय गाथा है, जो धार्मिक साहित्य, मानस-रसिकता और सांस्कृतिक चेतना में रुचि रखने वाले प्रत्येक पाठक के लिए संग्रहणीय एवं पठनीय है। यह कृति न केवल मानस के एक प्रसंग का पुनर्लेखन है, बल्कि दाक्षायणी से पार्वती, और पार्वती से शिवप्रिया बनने की अमर कथा की- एक भाव यात्रा हैं।

(लेखक राजकीय कला महाविद्यालय, कोटा में चित्रकला विषय के सहायक आचार्य हैं )

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