‘असतो मा सदगमय’ यही समझाए अंधेरे से उजाले की ओर चलते जाएं दीपोत्सव मनाने को दीप जलाए जाते हैं बिना बाती के प्रज्जवलित हुए दीए तम को हर नहीं पाते हैं दीया जड़ है और बाती चेतन जब दोनों का होता है मिलन
अद्भुत प्रकाश का होता अवतरण एक दूजे बिन दोनों अधूरे अपूरण दीपक चाहे हो माटी का अन्य धातु का या रजत का मूल्यवान तभी तक कहलाता जब ज्योति से वह जगमगाता सतयुग में असत कंही नहीं था त्रेता युग में सत असत लोक अलग थे युग बदला और बदले हालात द्वापर में सत असत आए एक घर में कलयुग में वे एक ही देह में हैं समाए।
करें हम सब सद् विवेचन छोड़ असत् का आलंबन स्वदेह से जीवात्मा का करें अनावरण कल्याणमयी ज्योति का करें संरक्षण सही गलत का करें विश्लेषण अंतर्मन का करें परम चेतन
अंतरतम को करें तिरोहित मन को करें सदैव परिष्कृत सार्थक करें अपना अस्तित्व इस दीपावली हो जाएं संवेदित भीतर के तम को प्रकाश में करें परिवर्तित फिर न धरा पर अंधकार रहेगा अनहोनी से न मन आशंकित होगा कभी किसी का न अहित होगा सकल जगत में खुशहाली होगी हर दिन दिवाली उजियाली होगी।
(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, नाथद्वारा, राजसमन्द की प्राणीशास्त्र की सेवानिवृत्त सह आचार्य हैं)