राखी बंधवाने आ जाओ…

बाल कविता 

 विश्वानि देव अग्रवाल, सेवानिवृत्त वरिष्ठ बैंक अधिकारी, बरेली


मैं छोटी हूँ एक परी सी
हूँ मैं तेरी बहना,
राखी बंधवाने आ जाओ
मानो मेरा कहना। 

सुंदर सी एक मोती वाली
मै हूँ राखी लाई,
कर-कर के मैं फोन थक गई
कब आओगे भाई। 

संग में तुमको जो पसंद है
लाई सभी मिठाई,
लड्डू पेड़ा बरफी लाई
संग में रस मलाई। 

सुबह से दोपहर हो गई
मैनें रखा है व्रत,
जब तक राखी बाॅंध न लूॅंगी
कुछ न खाऊँ ये सच।

मैंने थाल सजा रखा है
विविध व्यंजन से,
रोली, राखी, अक्षत रखे
महकाया चंदन से। 

कब आयेंगे तेरे भय्या
सबरे पूछ रहे हैं,
हल्की सी आहट से भी
सब मिलकर चौंक रहे हैं।

तभी द्वार पर घंटी ट्रिन-ट्रिन
दरवाजा खटकाया,
तुरत कूदकर पहुँची बहना
भय्या गले लगाया। 

चौक पूर कालीन बिछा
भय्या को है बिठलाया,
बाॅंध कलाई पर राखी को
माथे तिलक लगाया। 

भय्या ने उपहार दिया
वो फूली नहीं समाई,
छोटी सी प्यारी सी बहना
अश्रु ऑंख भर लाई। 

भाई-बहन का रिश्ता ये
सबसे है अद्भुत अनुपम,
इस न्यारी जोड़ी से युग-युग
मुस्कराए हर ऑंगन।

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