मंथन

डॉ. शिखा अग्रवाल
इंसानियत ढूढ़ें यहां,
जो खो गई इस दौर में,
हर कोई चाहे सच्चाई,
खुद में नहीं, किसी और में।
मारना इंसान को तो,
हो गया आसां यहां,
जोड़ना मन से मनों का,
हो गया मुश्किल यहां।
रिश्ते नाते हो गए हैं,
खोखले सारे यहां,
ना सुरक्षित घर ये अंगना,
गैर से क्या चाहना।
था पड़ोसी भी सगा सा,
एक घर एक साथ था,
अब वो स्नेह बंध है टूटा,
दरक गया विश्वास जो था।
कैसा है ये रूप समय का,
हर मानुष को सता रहा,
कैसे बदले समय का पहिया,
मानस मंथन करा रहा।
(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, सुजानगढ़ (चूरू) में सह आचार्य हैं)
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