मैं था हवा खोर…

सपना 

डॉ. सत्यदेव आजाद, मथुरा 


सफ़ेद धुला
मलमल का कुर्ता पहने
मैं टहल रहा था।
सान्ध्य नील नभ के नीचे

मैं था हवा खोर
एक जेब में
कुण्ठाओं के
चिन्ताओं के
पीड़ाओं के चने भरे थे
एक जेब में
सपनों की मीठी किशमिश

आदमी अब खूब रोता है…

मैं, एकाकी ही
कंकरीले पथ पर
कुण्ठाओं वाले
भुने चने टूंगता हूँ
और-
यदि मित्र मिल जाता है कोई
सामने हथेली पर
बड़े अन्दाज़ से पेश करता हूं
सपनों वाली मीठी किशमिशें।

दरपन मन टूक टूक हो गया…

यह महानगर है
मैं ही क्या
सभी यहाँ
दोहरेपन के आदी हैं।

(लेखक आकाशवाणी के सेवानिवृत्त वरिष्ठ उद्घोषक और नारी चेतना और बालबोध मासिक पत्रिका ‘वामांगी’ के प्रधान संपादक हैं।)


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