झरोखा

डा. विनीता लवानिया
आइये मेरे साथ कुछ कदम पीछे, एक यादों का झरोखा खोलकर देखिए जो आपको ज्यादा नहीं 20-25 साल पीछे ले जा सके। दादी नानी का घर जिसमें बड़ा सा दालान या आँगन, एक तरफ रसोईघर, तो सामने बड़ा सा कोठार, बड़े-बड़े ड्रमों में भरे गेहूँ, चावल, कनस्तर में भरे आलू के चिप्स, पापड़, साबुत और दली हुई दालें, साथ ही दाल दलने के कारण बना दाल के चूरे का बड़ा सा डिब्बा, सत्तू, मूँग और उड़द की बडियाँ, मीठी – खट्टी अचारी, मुरब्बे और तरह-तरह के अचारों से भरे मर्तबान, साल भर के मसालों से भरे डिब्बे, शक्कर की बोरियाँ, तेल-घी के पीपे, कमोबेश यही चित्र सभी की यादों में उभर कर आ जायेगा। रसोईघर के कोने में लगा चूल्हा या अंगीठी, बड़ी सी परात में ढेर सारा आटा चपातियों की मीनार, और रात को सोने से पहले पीने के लिए तैयार धीमी आँच पर रखा दूध का स्वाद शायद ही कभी कोई भूल सका हो।
बस! बन्द कर दीजिए अपने झरोखे को और ढूँढिए, कहाँ गया वो कोठार और बड़ा सा रसोईघर ? साल भर के अनाज मसाले अचार, पापड़ धीरे-धीरे महीने की खरीदारी और फिर आवश्यकतानुसार तुरन्त क्रय में कब बदले हमें पता ही नहीं लगा। रसोईघर सिकुडने लगा, रसोई जमीन से उठकर खड़ी हो गई, काउन्टर पर गैस, इंडक्शन, हीटर ने चूल्हे और अंगीठी को घर के बाहर फेंक दिया।
सारी जरूरत की चीजें छोटे प्लास्टिक के डिब्बों में ड्राअर और केबिनेट में जगह पा गई। दादी, नानी, माँ के हाथों का स्वाद थैलियों में बंद दादी की रैसिपी, मदर्स मेड की ब्राण्ड बनकर कैबिनेट में सज गया। पहले कोठार की बारी आई और फिर रसोईघर का नाम बदला, पहचान बदली, रसोईघर, किचनेट में बदल कर ड्राइंगरूम, डाईनिंगरूम का हिस्सा बनकर काउन्टर पर सिमट गई। और तो और बर्तन भी कुक एण्ड सर्व, गैस स्टोव से खाने की मेज पर होते हुए सीधे “डिशवाशर में कैद होकर खटकना भूलने लगे, एक दूसरे से टकराने को तरसने लगे। “रेडी टू कुक, फ्रोजन फूड फास्ट फूड ने रसोईघर के महत्व को नहीं आवश्यकता को ही नकार दिया है। ये चित्र देखने के लिए किसी झरोखे को खोलने की जरूरत नहीं, हाँ आँखे खोलने की जरूरत है।
आईए अब जड़ में जाते हैं इस परिवर्तन की गइराईयाँ देखने के लिए, संयुक्त परिवार जिसमें दादा-दादी ताऊ ताई, चाचा-चाची, बुआ और बच्चों से हरा-भरा परिवार, ज्यादा लोग ज्यादा वस्तुएँ, ज्यादा भोजन और इन सबके लिए ज्यादा जगह। इन सब “ज्यादा” का स्थान “कम” ने ले लिया। परिवार एकाकी उसमें भी पति पत्नी कामकाजी, जीवन की समस्याओं से जूझते, घर बाहर – बच्चे – समाज, वर्तमान–भविष्य को संभालने-संवारने में जुटे दम्पती जिन्हे न गेहूँ बीनकर आटा पिसवाने का समय, ना ही दाल साफ कर संग्रहण की फुरसत, ना अचार ना मुरब्बे बनाने, खाने का समय ना ही बच्चों को घर के चिप्स पापड़ खाने में रूचि, कब और क्यूँ, आवश्यकताओं ने समय का मोल समझा और बदल गई, जरा सोचिए।
अति उच्च वर्ग और धनाढ्य घरों में तो रसोई घर पहले ही गृहणी के हाथों से फिसलकर कुक और मेड के कब्जे में चले गए थे किन्तु मध्यमवर्ग के परिवारों में भी अब रसोईघर गृहणी को तरसते नजर आने लगे हैं। एक दृष्टि तो डालें अपने आस-पास के बड़े होते बच्चों पर, उनकी खाना बनाने की रूचि पर, पकाना सीखने में बढ़ती हुई शर्म या झिझक पर, खाना बनाने में लगने वाले समय और मेहनत को व्यर्थ मानने की मानसिकता पर और बाजार में लगभग तैयार मिलने वाली सब्जियों, मसालों, रोटियों की सुलभ उपलब्धता पर। यह मिला जुला प्रयास है हमारी नयी पीढ़ी को रसोईघर से दूर रखने का ? रसोईघर की संस्कृति जो कि सास से बहू, माँ से बच्चों और भाभी से ननद को हस्तान्तरित होती थी उसकी कड़ियां तो पहले ही बिखर चुकी हैं।
ऐसी बदलती स्थिति में रसोईघर के नए स्वरुप, किचनेट को एक सुविधाजनक आकर्षक एवं उपयोगितामूलक स्थान बनना स्वाभाविक है। वैसे भी आधुनिक संस्कृति महानगरों से गुजरती हुई नगरों तक पसर गई हैं। सुबह का नाश्ता घर में करने के बाद, लन्च ऑफिस में, अक्सर शाम का खाना क्लब में और सप्ताह अंत के दो दिन कहीं आउटिंग के नाम पर शहर के आस-पास जाकर रिलैक्स होना दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया हैं। यह भी तो सच है कि फास्ट कुकिंग के लिए मिक्सर ग्राइन्डर, माईक्रोवेव, कॉफी एवं टी मेकर, इंडक्शन को जगह ही कितनी चाहिए। सब कुछ एक काउन्टर पर सजा कर रखना बहुत ही सरल है वह तो इमामदस्ता, सिलबट्टा, चूल्हा – अंगीठी, कौयले, चक्की को दालान और कोठार चाहिए थे। दो कमरे के फ्लैट में इनका समा पाना संभव ही कहां हैं ?
रसोईघर की सिमटन को तटस्थ भाव से देखा जा सकता है, जब तक कि इससे जुड़े सकारात्मक या नकारात्मक प्रभावों को अनदेखा किया जा सके। समाज में आए परिवर्तनों और पारिवारिक स्वरुप में बदलाव के अलावा कुछ भौतिक कारण भी इस प्रक्रिया के लिए उत्तरदायी कहे जा सकते हैं। जमीन की आसमान छूती कीमतें रसोईघर से जुड़े स्टोर को तो पहले ही लील चुकी थीं। फ़्लैट संस्कृति ने जमीन का माप, बीघा, एकड़, मीटर से बदल कर स्क्वायर फुट, सुपर एरिया और इंचों में कर नए मायने दे दिए चौड़े आंगन में लिपे पुते चूल्हे को गाँवों तक सीमित कर दिया। हम तो ये भी नहीं जानते कि विकास के नाम पर तेजी से फ़ैल रही मेगा हाईवे, सिक्सलेन सड़कें कब गाँवों से भी इन्हे छीन लें और रसोईघर की परिभाषा में रसोई और घर अलग-अलग परिभाषित होने लगें।
(लेखिका गवर्नमेंट गर्ल्स कॉलेज नाथद्वारा में समाजशास्त्र विषय की सह आचार्य हैं)
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