अनूठे थे भरतपुर की रियासतकालीन होली के नज़ारे

योगेन्द्र गुप्ता  

भरतपुर में रियासत काल के दौरान होली के जो नजारे नजर आते थे वह अब गुजरे जमाने की बातें हो चुकी हैं। उस समय स्वयं भरतपुर महाराज लोगों के बीच रंग उड़ेलते निकलते थे और हंसी-ठिठोली करते थे, लेकिन अब न तो पहले जैसी लोगों में आत्मीयता रही और न वैसे होली के आयोजन ही होते हैं। रियासतकाल में बसन्तपंचमी से ही होली के आयोजनों की धूम शुरू हो जाती थी। चूंकि स्वयं महाराज इनमें रुचि लेते थे, इसलिए आम लोगों का उत्साह भी दूना हो जाता था। यहां के महाराजा किशनसिंह ने बंध बारेठा की पहाड़ियों पर संत महल का निर्माण कराया था, इसकी रौनक  जगजाहिर है। इस महल में बसन्तपंचमी के दिन महाराजा का दरबार लगता था और सभी सरदार बसन्ती पोशाक में शामिल होते थे। उसी दिन से होली का डांडा गाड़ा जाकर यहां के मंदिरों में होली के गीत और संगीत के कार्यक्रम शुरू हो जाते थे। पूरी रात जगह-जगह होली के खयाल गाए जाते थे।

ठिठोलियों और गायन के साथ स्वांगों का आयोजन
होली से पन्द्रह दिन पहले भरतपुर में हास्य-व्यंग्य की ठिठोलियों और गायन के साथ स्वांगों के आयोजन का सिलसिला किले में वजीर साहब के कमरे के पास चलता था। इनमें भाग लेने वाले यहीं के कलाकार उस जमाने में रियासत के विभिन्न महकमों के अफसरों की मनमानी, कारगुजारियों की पोल अपने हास्य प्रसंगों के जरिए खोलते थे। हंसी-हंसी के बीच महाराज के सामने हकीकत आ जाती थी और उस पर वह कार्रवाई करते थे। उस समय बिजली नहीं थी। इसलिए गैस के हण्डों को जलाकर उनकी रोशनी में इन स्वांगों का रात के समय प्रदर्शन होता था । महाराजा स्वयं अपने सरदारों के साथ इसे पूरे समय यहां की जनता के साथ बैठकर देखते थे। महाराजा की ओर से तब स्वांग पार्टियों को बतौर इनाम के एक-एक थाल में चांदी के सिक्के दिए जाते थे। वह किसी से जब अधिक खुश होते तो उसे पद भी देते थे। उन दिनों गिर्राज, रेवती, सूबेदार राजपालसिंह आदि इन स्वांगों में हास्य अभिनय के लिए काफी मशहूर थे। वह प्रदर्शन करते उससे पहले ही दर्शकों की हंसी उनकी भाव भंगिमाओं को देखकर फूट पड़ती थी। लोग हंसते-हंसते लोटपोट हो जाते थे। उन्हीं दिनों महाराजा की होली कोठी इजलास खास के पास काफी बड़े क्षेत्र में रखी जाकर उसका पूजन होली के दिन पण्डित शुभ मुहूर्त में कराते थे। महाराजा स्वयं अपने हाथों से उसमें अग्नि लेकर उससे शहर के सार्वजनिक स्थलों की अन्य होलियों व अपने घरों की होलियां जलाते थे।

महाराजा खुद निकलते थे प्रजा से होली खेलने
धूलेंडी के दिन महाराजा सवेरे ही किले के अन्दर महल खास पर आते थे और वहां से एक हाथी पर लगी अम्बारी में बैठकर शहर में प्रजा से होली खेलने को निकलते थे। उनके पीछे रंग से भरा जल का टैंकर चलता था जिससे पाइप के जरिए मोटर द्वारा यह रंगीन जल महाराजा स्वयं हाथी पर बैठकर पिचकारी से ही रास्ते में लोगों पर उड़ते जाते थे। पिचकारी की धार इतनी तेज होती थी कि छतों के ऊपर खड़ी महिलाएं और नीचे के लोग इससे निकले रंग से तरबतर हो जाते थे। इससे सभी अत्यधिक आनंद का अनुभव करते थे। जनता भी महाराजा पर रंग फेंकने की कोशिश करती थी, किन्तु उनके पीछे उनका अंगरक्षक अपने दोनों हाथों में बचाव के उपकरण लेकर महाराजा को इससे बचाते चलता था। महाराजा इसी हाथी से रंग के भरे ऐसे कुमकुम भी प्रजा में पुरुषों और महिलाओं पर फेंकते थे जिनसे उन्हें चोट तो नहीं लगती थी किन्तु वह उनके कपड़ों पर बिखरकर उन्हें सूखे रंग में सरोबार कर देते थे। स्वांग पार्टियां महाराजा के आगे इस जुलूस में गाते-बजाते चलती थी। महाराजा के पीछे के वाहनों में उनकी सरदारी होती थी जिनसे लोग होली खेलते थे। यह जुलूस कुम्हेर दरवाजा पर समाप्त होता था और महाराजा वापस मोती महल पहुंचकर दोपहर एक से तीन बजे तक होली खेलते थे। इसी दौरान वहां एक बड़ा गड्ढा खुदवाकर उसमें रंगदार पानी भरवा दिया जाता था। महाराजा के इशारे पर उनकी मौजूद सरदारी अन्य लोगों में से किसी-किसी को पकड़कर इस पानी में डाल देती थी। इसका आनन्द सभी लोग लेते थे। महाराजा चांदी की पिचकारी से लोगों पर रंग की वर्षा करते थे। इसी रात्रि को एक भोज में महाराजा के साथ उनके सरदार व गणमान्य लोग भाग लेते थे। यह परम्परा स्व. महाराजा ब्रजेन्द्रसिंह के समय में रियासत के विलीनीकरण तक चलती रही।

होलाष्टक लगते ही बाजारों में निकलने लगती थीं हुरियारों की टोलियां
रियासतकाल में गुलाल और रंग-बिरंगी कुमकुमों को फेंकने की शुरूआत होलाष्टक से ही शुरू हो जाती थी। कोठी खास पर लगने वाले दरबार में महाराजा अपने सिंहासन पर बैठे-बैठे दरबारियों पर कुमकुम फेंकते थे। इससे पूरे दरबार हाल का माहौल रंगीन हो जाता था। हाल के झरोखों में यहां इस होली को देखने के लिए आने वाले अंग्रेजों को बैठाया जाता था। होली के लिए गोलबाग रोड इजलास खास की पश्चिमी दिशा में करीब एक बीघा जमीन बसन्त पंचमी पर तैयार की जाती थी। बाद में बड़े-बड़े लक्कड़ महाराजा की गाड़ियों में भरकर आते और वहां दस-बारह फीट ऊंची होली तैयार कर उसका हवन हो जाता था। धूलेंडी के बाद दौज के दिन किले के कमरा खास में महाराजा का दरबार फिर लगता था और उसमें भी गुलाल चलती थी। होलाष्टक के लगते ही शहर के बाजारों में लोगों का उत्साही हुरियारों के कारण रास्ते से निकलना मुश्किल हो जाता था।