प्रारब्ध…

आस्था 

डॉ. संगीता राठौड़


हर तरफ हाहाकार है। घोर निराशा का माहौल है। हम अपने प्रियजनों, करीबियों को खो रहे हैं। अपने आस-पास के वातावरण से विचलित हैं। ऐसा लग रहा है,जैसे सब कुछ फिसलता सा जा रहा है। सकारात्मकता जैसे कहीं खो गई है और नकारात्मकता ने अपने पैर पसार पसार लिए हैं। जब परिस्थिति अपने प्रतिकूल हो और हमारे हाथ में कुछ नहीं हो तब ऐसी विकट परिस्थिति से उबरने के लिए हमें अपने भीतर ऊर्जा का संचार करना होगा, शान्ति का समावेश करना होगा।

जीवन अमूल्य है, यह कोई हार-जीत का खेल नहीं है। हमे कुछ जीतना नहीं है जिससे हमें हार का डर सताये। हमें स्वयं को जागरूक करना होगा। अपने अस्तित्व को पहचानना होगा। इसके लिए हमें प्रयास करने होंगे और मैंने अपने हिस्से की कोशिश प्रारम्भ कर दी है। मैं इस सृष्टि का अंग हूँ और सृष्टि से जुड़ा ही मेरी नियति है। में पंचतत्वों से बनी हूँ और मुझे पंचतत्वों में ही विलीन होना है, तो इस यात्रा के मध्य मुझे अपने भीतर सृष्टि के पंचतत्वों को अनुभव करना है।

बस इतना। पर क्या यह आसान है? क्या मैं कर पाऊँगी? इसकी प्रक्रिया क्या है ? यह बड़े सवाल है। शान्तचित्त होकर अपने भीतर सृष्टि को समाहित करना होगा एवं पूर्ण रूप से स्वयं को इसे समर्पित करना होगा। योग, प्राणायाम, ध्यान साधना यही जीवन को साधने के साधन है। यही मेरा प्रारब्ध है।

(लेखिका भूपाल नोबल्स विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज.) के  प्राणी शास्त्र विभाग में सहआचार्य एवं विभागाध्यक्ष हैं)




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