जानिए देश के प्रमुख चिंतक, विचारक और विरल व्यक्तित्व के धनी केएन गोविंदाचार्य के बारे में, आखिर कर क्या रहे हैं वह?

आज ‘नई हवा’ के इस अंक में प्रस्तुत है देश के विख्यात चिंतक और विचारक के. एन. गोविंदाचार्य के अथक परिश्रम की कहानी। भाजपा से अलग होकर क्या गोविंदाचार्य गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं या फिर  बिना किसी लालसा के देश और समाज की सेवा में अपने को समर्पित कर दिया है, आज यहां जानेंगे ऐसे विरल व्यक्तित्व और चिंतक की कहानी। और ‘नई हवा’ के लिए यह कहानी अपने शब्दों में पिरोकर भेजी है राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के राष्ट्रीय सह संयोजक एडवोकेट गिरिराज गुप्ता ने। मुझे भी कई बार गोविंदाचार्य जी को बहुत ही नजदीक से जानने और समझने का अवसर मिला है। मेरे घर पर कई बार गोविंदाचार्य जी आना-जाना रहा। उनसे वार्तालाप का अवसर मिला है। वाकई गोविंदाचार्य जी विरल व्यक्तित्व के धनी हैं।
– योगेंद्र गुप्ता, सम्पादक

  एडवोकेट गिरिराज गुप्ता


विराट व्यक्तित्व के धनी अनथक योद्धा के. एन. गोविंदाचार्य जिनको संपूर्ण देश के लोग आदर से गोविंद जी नाम से पुकारते हैं। उनका पैतृक निवास तमिलनाडु है। परंतु जन्म 15 मई,1943 को अपने ननिहाल तिरुपति में हुआ। उनका पूरा नाम कोडिपाक्कम नील मेघाचार्य गोविंदाचार्य है। गोविंद जी जब मात्र डेढ़ वर्ष के थे तब उनके पिता रामानुज संस्कृत महाविद्यालय वाराणसी में प्राध्यापक बन गए थे। इस वजह से वह अपनी माता जी के साथ वाराणसी आ गए। यहां उन्होंने अपनी संपूर्ण पढ़ाई पूरी की और बनारस हिंदू महाविद्यालय से प्रथम श्रेणी से एमएससी की डिग्री हासिल की।

महाविद्यालय के मेधावी छात्र होने के कारण से उनको इसके बाद विदेश में फेलोशिप का भी आमंत्रण मिला। परंतु उनका छात्र जीवन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ाव हो गया था। इस वजह से अपनी पढ़ाई पूर्ण करने के पश्चात उन्होंने विदेश ना जाने के स्थान पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक का पूर्णकालिक बनना तय  किया, जिसका परिवार में भरपूर विरोध हुआ क्योंकि उस समय परिवार विषम आर्थिक हालातों से गुजर रहा था। इस वजह से उनको उनकी माताजी ने आधे पागल के स्थान पर पूर्ण पागल की संज्ञा से नवाजा।

गोविंदाचार्य 1965 से 1976 तक बिहार के विभिन्न स्थानों पर संघ के प्रचारक रहते हुए पटना में विभाग प्रचारक रहे। इसी समय बिहार में जेपी मूवमेंट प्रारंभ हुआ और उसमें स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण जी से निकटता बढ़ी और इस आंदोलन में फ्रंट पर ना आते हुए आजादी के बाद के सबसे बड़े आंदोलन को पीछे से पूरी ताकत प्रदान की। इसके पश्चात 1976 से 1988 तक देश के विभिन्न भागों दक्षिणांचल, मध्यांचल, उत्तरांचल में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में विभिन्न महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया।

1988 में  गोविंदाचार्य जी ने संगठन योजना से भाजपा में प्रवेश किया। वहां पर 1990 में आडवाणी जी की रामरथ यात्रा के मुख्य सूत्रधार रहे और 1991 से 2000 तक भाजपा के संगठन महासचिव की भूमिका का निर्वहन किया और अपनी सादगी, कर्तव्यनिष्ठा व निडरता की अमिट छाप छोड़ी। यहीं पर कार्य करते हुए 2000 में भाजपा से अलग होकर 2002 तक 2 वर्ष तक संपूर्ण देश के महत्वपूर्ण स्थानों पर रहते हुए देश को और निकटता से जानने समझने के लिए अध्ययन किया व देश की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए 2004 में सबसे प्रथम संगठन भारत विकास संगम की स्थापना की।

तीन साल में एक बार जुटते हैं लाखों लोग
भारत विकास संगम वह संगठन है जिसमें देशभर में भांति-भांति के कार्यों में लगे संगठन अपना स्वयं का वजूद कायम रखते हुए एक दूसरे के विचारों का आदान-प्रदान करते हैं, समझते हैं व उसमें सहयोग देते हैं। हर 3 वर्ष के अंतराल में इसका देश के अलग-अलग भागों में 7 दिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन होता है। जिसमें 5 से 25 लाख तक समाज की सज्जन शक्ति एकत्र होती आई है। और यह संपूर्ण कार्य बिना सरकारी सहयोग के अपने दम पर संपन्न करते हैं। इसमें सहभागी होने वाले कार्यकर्ताओं को देश की सज्जन शक्ति की ताकत का अहसास होता है। और कार्य करने का हौसला बुलंद।

मेरा यहां पर गोविंद जी का विस्तृत परिचय देने के पीछे भाव यह है कि गोविंद जी ने अपने विद्यार्थी काल से लेकर के अब तक उम्र के 77 वर्ष के पड़ाव में विभिन्न संगठनों में कार्य करते हुए संपूर्ण देश के कोने-कोने को बहुत निकटता से देखा व समझा है। केवल सभा, संगोष्ठियों व आम सभाओं में जमी जमाई जाजम पर भाषण देना और दूसरी ओर धरातल पर खड़े होकर के काम खड़ा करना इसमें बहुत अंतर होता है। गोविंद जी ने धरातल पर आम कार्यकर्ताओं के बीच में सहज व सरल भाव से बैठकर यह काम किया है। इसी वजह से आज उनको देश के कोने-कोने की व्यापक समझ व उनको जानने समझने वाले लोग हैं।

गोविंद जी 2002 में भाजपा से अलग होने के बाद ना तो कभी उन्होंने अपने आप को ठगा हुआ महसूस होने दिया और ना ही सीधे तौर पर भाजपा को कोसा। हां, यह जरूर है, जो उनके स्वभाव का हिस्सा है। वह सही बात को सही तथा गलत बात को बड़ी निडरता और निर्भीकता से गलत कहते हैं। उसमें चाहे वह अपना हो या पराया।

राष्ट्र सर्वोपरि
भाजपा से अलग होने के पश्चात वह एक दिन भी हताश, निराश होकर घर नहीं बैठ कर जिस प्रकार पहले विभिन्न संगठनों में काम करते थे, उसी ऊर्जा व गति से देश में उनसे जुड़ाव रखने वाले कार्यकर्ताओं के साथ विचार-विमर्श करते हुए जिसकी जैसी रूचि है, उसको उन्हीं कामों में लगाकर दिशा निर्देश देते रहे। उन्होंने ना तो पार्टी में रहकर कभी पद प्रतिष्ठा की इच्छा पैदा की और ना ही वहां के सत्ता सुख का आनंद ही भोगा। वहां भी जिस तरह से उन्होंने अपने प्रचारक जीवन की शुरुआत की, उसी अंदाज में रहे। इसका साक्षी संपूर्ण देश है। उनके लिए हमेशा राष्ट्र सर्वोपरि रहा और सब उसके बाद में। आज भी संगठन को जहां भी उनसे विचार-विमर्श की आवश्यकता होती है, वह उनको बड़े ही सहज व सरल भाव से उपलब्ध कराते हैं, उनको कोई माने या ना माने, इसकी भी वह चिंता नहीं करते।

गोविंद जी ने विगत 20 वर्षों में देश में भारत विकास संगम, राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन, कौटिल्य शोध संस्थान, हरित भारत अभियान, ईटरनल हिंदू फाउंडेशन, गौ रक्षा व संवर्धन, अविरल गंगा निर्मल गंगा, देश की न्याय प्रणाली व चुनाव प्रणाली में सुधार हो, पंचायतों को काम करने की अधिक स्वतंत्रता मिले, स्वदेशी को प्राथमिकता जैसे बहुत से संगठन तैयार किए हैं जो देश के कोने-कोने में अपने काम को लेकर कार्यरत हैं। गोविंद जी ने विगत 2 वर्षों से देश व दुनिया में चल रहे कोरोना काल के मध्य भी जैसा भी उनको अवसर मिला उसमें प्रथम कोरोना काल की अवधि में 28 दिन की गंगा दर्शन यात्रा, दूसरे कोरोना काल की अवधि में 25 दिन की मां नर्मदा यात्रा व अभी उनकी यमुना दर्शन यात्रा 28 अगस्त विकास नगर, उत्तराखंड से प्रारंभ की जिसका 14 सितंबर राधा अष्टमी के अवसर पर वृंदावन धाम में समापन हुआ।

प्रकृति केंद्रित विकास पर जोर
इन यात्राओं का मकसद देशभर में उनसे जुड़े हुए  कार्यकर्ताओं व आमजन के मध्य सीधा संवाद व संपर्क कायम रखना, देश को वर्तमान परिस्थितियों के हिसाब से और निकटता से जानना, समझना उस पर अध्ययन करना और देश में किन-किन क्षेत्रों में क्या-क्या आवश्यकताएं हैं। उनका किस प्रकार से समाधान हो सकता है, इस पर समय शक्ति लगाना भर है। अभी उनका ध्यान देश में प्रकृति केंद्रित विकास पर केंद्रित है, जिसको इस कोरोना काल की भयावह अवधि में ना केवल देश ने ही स्वीकार किया, वरन विदेशों में भी विकसित राष्ट्रों ने जिनको अपनी ताकत व विज्ञान का बहुत गुमान था, उन्होंने भी स्वीकार किया कि  प्रकृति के साथ खिलवाड़ करके जनजीवन लंबे समय तक नहीं चल सकता। प्रकृति के खिलवाड़ का परिणाम ना केवल मानव को वरन समस्त जीव को भुगतना पड़ता है।

मैं विद्यार्थी परिषद में कार्य करने के दौरान 1985 से उनके सतत संपर्क में हूं।और मन में बिना किसी प्रकार की कोई लालसा रखते हुए, जैसा कि गोविंद जी का स्वभाव है, वह ना तो किसी को अंधेरे में रखते हैं, और ना ही किसी प्रकार का कोई लालच व सब्जबाग दिखाते हैं, उनके साथ विगत 36 वर्षों से कार्यरत हूं। उनका तो देश से खुला कहना है कि ‘कबीरा खड़ा मैदान में लिए लुकोटी हाथ, जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ।’ तो हम भी उनके इसी कारवां के साथी हैं। 

हां मन में इतना गरूर तो नहीं परंतु इतना फक्र जरूर है कि आज हम जिस निष्कपट, बेदाग, व्यक्तित्व के साथ निष्काम भाव से कार्यरत हैं, वह इस देश की ऐसी शख्सियत है जो देश के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वाले सिरमौरो से ज्यादा भले ही ना हो परंतु योग्यता, अनुभव व समझ में किसी से कमतर भी नहीं है। जीवन के उत्तरार्ध में यही राष्ट्ररक्षा व स्वाभिमान का भाव मन में कायम रहे। मेहनत की रोटी, इज्जत की जिंदगी। सही बात को डटकर बोलें, जो जहां है वहीं से बोलें। अपने धर्म का मान उसके साथ ही दूसरे धर्म का भी सम्मान।

(लेखक राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के राष्ट्रीय सह संयोजक हैं)

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