घर-घर जाकर दीप जला दूं…

आशा का उजियारा 

 डॉ. शिखाअग्रवाल 


घर-घर जाकर दीप जला दूं,
खुशियों का उजियारा कर दूं।
उस घर के आंगन में जाकर,
दीप रखूं एक आशा का,
जिस घर में नन्हे बच्चों का,
कोई अपना नहीं बचा।

एक दीप उस भूमि पुत्र के,
जिसने सोना  उपजाया,
धूप, घाम, बारिश से लड़कर,
अन्न सभी तक पहुंचाया।
गुब्बारे वाला वो लड़का,
मुरझाया सा बहुत उदास,
कुछ खुशियां उसको भी देकर, 
मन में उसके भरूं उजास।

उस पटरी पर बैठी अम्मा,
लेकर बाती और दीपक,
उससे मोल भाव ना करके,
दे दूं मनचाही कीमत। 
जिनके घर है भूख के पहरे,
कुछ खाने को पहुंचा दूं,
दूर बसी उन बस्तियों में,
थोड़ा उजियारा कर दूं।
घर- घर जाकर दीप जला दूं ,
दीपोत्सव सार्थक कर दूं।

(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, सुजानगढ़ में सह आचार्य हैं)

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