लघु कथा
डॉ. अलका अग्रवाल, सेवानिवृत कॉलेज प्राचार्य
पापा को इस दुनिया से गए 4 दिन हो गए थे। सभी रिश्तेदार जा चुके थे। मैं मां के पास ही रुक गई थी। मां नींद की गोली देने के बाद बड़ी मुश्किल से सोई थीं।
अकेले मन नहीं लग रहा था। पापा की अलमारी खोली तो वहां एक पुरानी सी डायरी दिखाई दी। उत्सुकतावश मैने यूं ही पन्ने पलट कर देखा तो एक पन्ने पर ऊपर ही लिखा था, ‘बेटी से क्षमा याचना सहित।’
मैं स्वयं को रोक ना सकी, पढ़ने लगी। उन्होंने लिखा था,
अभी 2 वर्ष ही हुए हैं, बेटी की शादी हुए। मेरी बेटी की कर्तव्य परायणता पर मुझे पूरा भरोसा है।….पर मैं उस दिन उसके ससुराल गया तो घर का माहौल बड़ा भारी सा लगा। थोड़ी ही देर में दामाद जी बेटी की शिकायत करने लगे।
मैं बहुत डर गया था। दामाद जी के क्रोधी स्वभाव के कारण मुझे लगा, कहीं ये रिश्ता ना टूट जाए। समाज का भय भी था, मन में।…तलाक हो गया तो लोग क्या कहेंगे। इसलिए उनके सामने बेटी के निर्दोष होते हुए भी मैने, बिटिया से उस गुनाह की माफी मांगने को कहा, जो उसने कभी किया ही नहीं था।
पर आज यहां इस डायरी के पन्ने पर, मैं बेटी से माफी मांग रहा हूं। मुझमें इतना भी साहस नहीं है कि बेटी से क्षमा मांग सकूं। हालांकि मैं जानता हूं कि बेटी ने मेरी विवशता समझी ही होगी, इसीलिए कभी शिकायत नहीं की। यह सब पढ़ते हुए मेरी आंखों की कोर नम हो गई थीं और नींद उड़ चुकी थी।
मैं सोच रही थी, तब से समय कितना बदल चुका है।अब बेटी का पिता इतना असहाय, विवश और समाज से डरा हुआ नहीं है।……और यह बहुत बड़ा सकारात्मक बदलाव है, समाज में।
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