बिटिया की पाती पापा के नाम…

आखातीज पर विशेष 

डॉ. शिखा अग्रवाल 


पापा,
आपने कहा था – तुम बड़ी हो गई,
क्या सचमुच मैं इतनी बड़ी हो गई
कि मेरे ब्याह की इतनी बेताबी हो गई
या घर में मेरे लिए जगह कम पड़ गई।

कल तक तो मैं बच्ची थी,
बेफिक्र,अलमस्त,अल्हण,
दो चोटी बनाए नादान सी,
आज मैंअचानक सयानी हो गई।

अभी ही तो मैंने,
जीवन लक्ष्य का सपना बुना है,
अभी ही तो मैंने,
हवा, बादल की गुनगुनाहट सुनी  है।
कोकून से निकली तितली हूं मैं,
बगिया में बिखरे रंगों को समझने तो दो,
अपनों से मुझे दूर मत करो कि
कह ना पाऊं अपने अरमान,
पापा, छू लेने दो मुझे भी आसमान।

यह वादा है मेरा,
नहीं भूलूंगी आपके दिए संस्कार,
अपने पैरों पर खड़ी हो,
कुछ बन के दिखाऊंगी,
घर आंगन का नाम रोशन,
कर के दिखाऊंगी।

पापा, इस घर का दालान
मुझसे बहुत बड़ा है,
जहां मेरे लिए अभी भी बहुत जगह है,
अभी से मुझे पराई मत करना,
अपनी आंखों से दूर ना करना,
अपने साये में संजोए रखना,
अपने साए में संजोए रखना।।

(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, सुजानगढ़ में सह आचार्य हैं)




 

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