नई दिल्ली
इलाहाबाद हाईकोर्ट परिसर से मस्जिद को हटाने का रास्ता अब साफ़ हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे लेकर सोमवार को अपना अहम फैसला सुनाया और इलाहाबाद हाईकोर्ट परिसर से तीन महीने में मस्जिद हटाने का सख्त आदेश दिया। SC ने कहा कि संरचना लीज पर ली गई संपत्ति पर अधिकार के रूप में इसे कायम रखने का दावा नहीं कर सकते हैं। इसके साथ ही इलाहाबाद हाई कोर्ट परिसर में बनी मस्जिद को हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 3 माह का वक्त दिया और कहा कि यदि तय मियाद में इसे नहीं हटाया जाए तो प्रशासन को छूट होगी कि उसे गिरा दिया जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश को ही बरकरार रखा है और किसी भी तरह के हस्तक्षेप से मना कर दिया है। सोमवार को सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले में दखल की कोई वजह उनको नज़र नहीं आती।
यह आदेश सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एमआर शाह और सीटी रविकुमार की एक पीठ ने दिया और अपने परिसर में स्थित एक मस्जिद को हटाने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2017 के आदेश के खिलाफ अपील को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। जस्टिस एमआर शाह और सीटी रविकुमार की एक पीठ ने वक्फ मस्जिद उच्च न्यायालय और यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिकाओं को खारिज कर दिया और याचिकाकर्ताओं को इलाहाबाद हाईकोर्ट परिसर से मस्जिद को हटाने के लिए तीन महीने का समय दिया। याचिकाकर्ताओं को तीन महीने में मस्जिद हटाने की मोहलत देते हुए कहा कि अगर तब तक मस्जिद नहीं हटाई गई तो हाईकोर्ट सहित अधिकारियों के लिए ये विकल्प खुला होगा कि वे उसे अवैध निर्माण मानते हुए तत्काल हटा दें या गिरा दें।
कपिल सिब्बल ने दिया तर्क- मस्जिद को यूं ही हटाने को नहीं कहा जा सकता
याचिकाकर्ताओं को वैकल्पिक भूमि के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को प्रतिनिधित्व करने की अनुमति देते हुए, शीर्ष अदालत ने कहा कि यदि याचिकाकर्ता तीन महीने की समय सीमा का पालन करने में विफल रहते हैं, तो अधिकारी मस्जिद को हटा या गिराया जा सकता है। मस्जिद की प्रबंधन समिति की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि मस्जिद 1950 के दशक से है और इसे यूं ही हटने के लिए नहीं कहा जा सकता। “2017 में सरकार बदली और सब कुछ बदल गया। नई सरकार बनने के 10 दिन बाद एक जनहित याचिका दायर की जाती है। जब तक वे हमें देते हैं, हमें वैकल्पिक स्थान पर स्थानांतरित होने में कोई समस्या नहीं है।
हाईकोर्ट के वकील का तर्क- यह धोखाधड़ी का मामला
वहीं उच्च न्यायालय की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने कहा कि यह पूरी तरह से धोखाधड़ी का मामला है। दो बार नवीनीकरण के आवेदन आए और कोई कानाफूसी तक नहीं हुई कि मस्जिद का निर्माण किया गया था और इसका उपयोग जनता के लिए किया गया था। उन्होंने नवीनीकरण की मांग करते हुए कहा कि यह आवासीय उद्देश्यों के लिए आवश्यक है। केवल यह तथ्य कि वे नमाज़ पढ़ रहे हैं, इसे मस्जिद नहीं बना देंगे। अगर सुप्रीम कोर्ट के बरामदे या हाईकोर्ट के बरामदे में सुविधा के लिए नमाज की अनुमति दी जाती है, तो यह मस्जिद नहीं बनेगी।
पीठ इन तथ्यों पर सुनाया फैसला
पीठ ने इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए आदेश पारित किया कि मस्जिद एक सरकारी पट्टे की भूमि में स्थित थी और अनुदान को 2002 में बहुत पहले ही रद्द कर दिया गया था. पीठ ने कहा कि 2012 में भूमि की बहाली की पुष्टि की थी और इसलिए, याचिकाकर्ता परिसर पर किसी कानूनी अधिकार का दावा नहीं कर सकते।
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