जम्मू कश्मीर: पारिवारिक पार्टियों के लिए बजी खतरे की घंटी

योगेन्द्र गुप्ता  |  जम्मू/श्रीनगर  |





क्या जम्मू-कश्मीर में वहां की परंपरागत और पारिवारिक पार्टियों के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है? जी हां! हाल ही सम्पन्न जम्मू-कश्मीर के जिला विकास परिषद (डीडीसी ) के चुनाव नतीजों से तो ऐसा ही लग रहा है। इन नतीजों से गुपकार को गहरा झटका लगा है। धारा – 370 हटने के बाद जम्मू -कश्मीर के आपस धुर  विरोधी सात दलों ने ‘ गुपकार ‘ का गठन किया था। इसके बाद भी गुपकार को इन चुनावों में स्पष्ट बहुमत नहीं मिल सका। 280 सीटों के लिए हुए चुनाव में गुपकार 110 सीटों के आसपास सिमटता दिख रहा है।


इसलिए आया अस्तित्व संकट में

गुपकार में फारूख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस और महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी सहित पांच और दल शामिल थे। इसमें सबसे ज्यादा झटका महबूबा की पीडीपी को लगा जिसे सिर्फ 26 सीटें ही मिलती दिख रही हैं। यह नतीजे इन पारिवारिक दलों के लिए सबसे बड़ी चेतावनी हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह भाजपा है जो इन चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है। आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ है कि भाजपा ने घाटी में अपना झण्डा रोपा है। घाटी में पहली बार उसके तीन उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की और कई उम्मीदवार ऐसे थे जो बहुत कम मार्जिन से हारे। एक रणनीति के तहत उसने बड़ी तादाद  में निर्दलीयों को मैदान में उतारा और और उनमें से कई जीत भी गए। भाजपा ने कुल 220 सीटों पर चुनाव लड़ा और करीब 74 सीटों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई  है। उसके समर्थित कई निर्दलीय भी जीते। पार्टी ने पुलवामा और श्रीनगर जैसी सीटों पर भी  पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस के पसीने छुडा दिये । इन दलों का यहां दबदबा रहता था।


 

भाजपा और निर्दलीय पड़े भारी

इस चुनाव में करीब 60 निर्दलीय उम्मीदवार भी जीतकर आए हैं। भाजपा का दावा है कि इनमें उसके समर्थित निर्दलीय भी हैं। भाजपा और निर्दलीयों ने जिस प्रकार का प्रदर्शन किया है उससे गुपकार में शामिल पारिवारिक पार्टियों के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। भाजपा को इस राज्य में लोकसभा चुनावों के दौरान 2.9 प्रतिशत मत मिले थे। अब विकास परिषद के इन चुनावों में उसका मत प्रतिशत डबल डिजिट में पहुंच  गया है। भाजपा की जीत इस मायने में भी बड़ी है कि वह अकेले ही चुनाव लड़ी और उसके खिलाफ सात दलों ने एकजुट  होकर गुपकार बना लिया। इसके बाद भी भाजपा घाटी में दस्तक देने में कामयाब हो गई। भविष्य में क्या होगा भाजपा की इस धमक से समझ जाना चाहिए। पार्टी के वरिष्ठ नेता शाहनवाज़ हुसैन करीब एक माह तक जम्मू -कश्मीर में डेरा डाले पड़े रहे। जम्मू में भाजपा को जरूर झटका लगा है। वह यहां अपनी जमा पूंजी घटा चुकी है।


 

हार गया ‘GUN तंत्र ‘

इन चुनावों से  एक और साफ संकेत गया। आजादी के बाद यह पहला चुनाव था जिसमें खून का एक कतरा भी नहीं बहा। 4181 उम्मीदवार मैदान में उतरे। इनमें 450 महिलाएं थीं। धारा -370 हटने के बाद गुपकार से जुड़े पारिवारिक दलों ने जो डर दिखाया था वह जम्मू-कश्मीर के इन चुनावों में कहीं नहीं दिखा। कह रहे थे कि तिरंगे  की नीचे चुनाव नहीं लड़ेंगे । लेकिन वे चुनाव लड़ने को मजबूर हुए। विकास के मुद्दे ही हावी रहे। यही जम्मू – कश्मीर की आवोहवा बदलने के संकेत हैं।


चुनाव लड़ना बन गई थी मजबूरी

गुपकार से जुड़े इन पारिवारिक दलों के चुनाव लड़ने की एक और बड़ी वजह थी। डीडीसी चुनाव के चार लेयर थे। एक सबसे बड़ी निर्दलीय कैटगरी थी। यह ग्रासरूट पॉलिटिक्स की देन थी। इसीलिए अपने को बचाने के लिए  गुपकार से जुड़े दलों की चुनाव लड़ने की मजबूरी हो गई क्योंकि चुनाव नहीं लड़ते तो उनकी अपनी जमीन छिनने वाली थी। यह भाजपा का साइड इफेक्ट था कि सात दलों को मिलना पड़ा। ये पारिवारिक दल जनता को बेवकूफ बनाकर कार्य करते थे।

जम्मू-कश्मीर में बड़ी संख्या में निर्दलीयों के चुनाव लड़ने और बड़ी तादाद में जीतने से अब स्थानीय नेता पैदा होंगे और पारिवारिक दलों का वर्चस्व खत्म होगा। पाक परस्त नेताओं के दरवाजे बंद होंगे। अलगाव का अध्याय भी समाप्त होगा।


 

यह भी पहली बार …

पहली बार महिलाएं वोट डालने के लिए लंबी-लंबी  कतारों में लगी नजर आईं। उम्मीदवार यह कहते नजर आए कि वे चुनाव जीतने के बाद  बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए काम करेंगे। पहली बार कश्मीरियों का आत्मविश्वास लौटा है। सकारात्मक सोच विकसित करने का मौका मिला है। कई नई पार्टियां मैदान में आईं। जनता ने खुलकर वोट डाले। अब तक का रिकार्ड मतदान हुआ। बरसों बाद  ऐसा नजारा देखने को मिला कि जीत के जश्न में लोग नाचते-कूदते-गाते नजर आए। वरना  जम्मू – कश्मीर का यह इतिहास रहा है कि चुनाव में हेराफेरी से लोगों का यकीन ही  उठ गया था।




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