बदलाव

डॉ. शिखा अग्रवाल
मकान को घर बनाती,
तीज-त्यौहार पर श्रृंगार करती,
चूड़ी पायल खनकाती,
घर को गुलजार करती,
स्त्री बदल रही है।
धूप बत्ती, दीपक से
घर को मंदिर बनाती,
साड़ी में लिपटी, सिर ढकती,
लाज से सिमटी, छुईमुई सी,
स्त्री बदल रही है।
तुलसी चौरे को सींचती,
घर के लिए मनौती मांगती,
पति को परमेश्वर मानती,
दादी नानी की कहानी सुनाती,
स्त्री बदल रही है।
अब टिकुली, सिंदूर से परे
आत्मविश्वास का श्रृंगार करती,
दहलीज पार कर घर की,
जिम्मेदारी निभाती स्त्री,
सच में बदल रही है।
तर्क करती, अपनी बात रखती,
अधिकारों की मांग करती,
बाहर की दुनिया में जाती,
घर का सहारा बनती स्त्री,
सच में बदल रही है।
उन्मुक्त हंसी हंसती,
आधुनिक परिधान में लिपटी,
जमाने को मुट्ठी में करने की
हसरत लिए आगे बढ़ती,
अस्तित्व को तलाशती स्त्री,
सच में बदल रही है।
(लेखिका राजकीय महाविद्यालय, सुजानगढ़ (चूरू) की सेवानिवृत्त सह आचार्य हैं)
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